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बुधवार, 1 नवंबर 2017

एक_ने_झटके_से_दुपट्टे_के_तार_निकाले_तो_दुसरे_ने_घोड़े_को_हाथ_से_उठा_लिया

राव विरमदेव के स्वर्गवास होने के बाद राव जयमल मेड़ता के शासक बने, चूँकि जयमल को बचपन से ही जोधपुर के शक्तिशाली शासक राव मालदेव के मन में मेड़ता के खिलाफ घृणा का पता था, साथ ही जयमल राव मालदेव की अपने से दस गुना बड़ी सेना का कई बार मुकाबला कर चुका थे| अत: उन्हें विश्वास था कि मालदेव मौका मिलते ही मेड़ता पर आक्रमण अवश्य करेंगे| सो उन्होंने शुरू से सैनिक तैयारियां जारी रखी और अपने सीमित संसधानों के अनुरूप सेना तैयार की| हालाँकि जोधपुर राज्य के सामने उसके पास संसाधन क्षीण थे|

आखिर संवत १६१० में राव मालदेव विशाल सेना के साथ मेड़ता पर आक्रमण हेतु अग्रसर हुए| जयमल चूँकि जोधपुर की विशाल सेनाएं अपने पिता के राज्यकाल में देख चुके थे, उन्हें पता था कि जोधपुर के आगे उनकी शक्ति कुछ भी नहीं| सो उन्होंने बीकानेर से सहायता लेने के साथ ही मालदेव से संधि कर युद्ध रोकने की कोशिश की, चूँकि सेनाओं में दोनों और के सैनिक व सामंत सभी आपसी निकट संबंधी ही थे सो जयमल नहीं चाहते थे कि निकट संबंधी या भाई आपस में लड़े मरे, सो उन्होंने मालदेव के एक सेनापति पृथ्वीराज जैतावत को संदेश भेजकर संधि की बात की व भाईचारा कायम रखते हुए युद्ध बंद करने हेतु अपने दो सामंत अखैराज भादा व चांदराज जोधावत को अपना दूत बना मालदेव के शिविर में भेजा|

जयमल के दूतों ने मालदेव से युद्ध रोकने की विनती करते हुए कहा जयमल का संदेश दिया कि– “हम आप ही के छोटे भाई है और आपकी सेवा चाकरी करने के लिए तैयार है सो हमसे युद्ध नहीं करे|” राव मालदेव ने बड़े अहम् भाव से दूतों से कहा – “अब तो हम जयमल से मेड़ता छिनेंगे|” दूत अखैराज ने कहा- “मेड़ता कौन लेता है और कौन देता है, जिसने आपको जोधपुर दिया उसी ने हमको मेड़ता दिया|”

इस पर राव मालदेव ने व्यंग्य से कहा – “जयमल के सामंत निर्बल है|”

चूँकि दोनों दूत अखैराज व चांदराज जयमल के प्रमुख सामंत थे सो राव मालदेव का व्यंग्य बाण दोनों के दिलों को भेद गया और वे गुस्से से लाल पीले होते हुए उठ खड़े हुए| गुस्से से उठते हुए अखैराज ने राव मालदेव के सामने अपने गले में बंधा हुआ दुपट्टा हाथ में ले ऐसा जोर से झटका कि उसके तार-तार बिखर गये| अखैराज द्वारा अपना दम दिखाने के बाद सामंत चांदराज ने गुस्से से लाल पीले होते हुए पास ही खड़े एक घोड़े की काठी के तंग पकड़कर घोड़े को ऊपर उठा अपना बल प्रदर्शित किया| और दोनों वहां से चले आये|

मुंहता नैणसी अपनी ख्यात में लिखता है कि- दोनों के चले जाने बाद राव मालदेव ने अपने सामंतों से दुपट्टे के झटके लगवाये पर कोई सामंत झटका मार कर दुपट्टे के तार नहीं निकाल सका| इस तरह जयमल द्वारा की गई शांति की कोशिश विफल हुई, दोनों के मध्य युद्ध हुआ, मेड़तीयों ने संख्या बल में कम होने के बावजूद इतना भीषण युद्ध किया कि जोधपुर की सेना को पीछे हटना पड़ा और राव मालदेव को जान बचाने हेतु युद्ध भूमि से खिसकना पड़ा|

काश ऐसे महाबली योद्धा छोटे छोटे मामलों को लेकर आपस में ना उलझते तो आज देश का इतिहास और वर्तमान अलग ही होता !!
Jodhpur, Merta, Rathore History

लेखक-रतनसिंह जी शेखावत

रविवार, 29 अक्टूबर 2017

राजपूत और चारण

भारतीय इतिहास में चारणों को देवीपुत्र/कविवर/कविराज के तौर पर जाना जाता है, जो कि अपने शब्दों सें बड़े-बड़े राजाओं को जोश से भर देते थे, और अपने शब्दों के वार से घमंडी राजाओं का घमंड भी उतार देते थे।
राजस्थान का एक बड़ा समाज है "राजपूत-समाज", उनकी भी कुलदेवी माँ करणी जी है और चारणों की भी कुलदेवी माँ करणी जी ही है, और ये राजपूत समाज राजस्थान पर राज करने वाले समाज के तौर पर जाना जाता है.....
इसिलए पहले राजस्थान का नाम "राजपुताना" ही था, क्योंकि शुरुआत से ही इस पर राजपूत शासको का राज रहा है...
तो तब से ही राजपूतो और चारणों का आपसी जुगलबंदी शुरू हो गई थी, जो आज भी जारी है...
आज भी जब कहीं पुरुषों में राजपूत और चारण एक साथ खाना खाने बैठते है, तो राजपूत तब तक निवाला नही तोड़ते जब तक चारण ना तोड़े...
और महिलाओं में बुजुर्गो के पाँव छूने का रिवाज हमारे यहाँ आज भी है, परंतु कभी भी कोई राजपूत समाज की महिला (भले ही वो कितनी भी वृद्ध हो ) किसी चारण महिला को अपने पाँव नही छूने देती.. बल्कि खुद चारण महिलाओ के पाँव छूती है, क्योंकि राजपूत महिलाए, चारण महिलाओ का आदर/सम्मान करती है, और देवितुल्य मानती है. चारणों को राजपूत का गुरु भी माना गया है...तो चारण-राजपूत का हमारे यहाँ ऐसा रिश्ता है इसीलिए चारण-राजपूत एक ना हो कर भी एक ही माने जाते है। चारण समाज हमारे लिए सदा पूज्यनीय रहा है और रहेगा ।।

रजवट रै चारण गुरु, चारण मरण सिखाय।
बलिहारी गुरु चारणां, खिण तप सुरग मिलाय।।

जय माँ करणी जी...
जय श्री राम...
जय क्षात्रधर्म...

लेखक- लक्ष्मणसिंह चौराऊ

सोमवार, 23 अक्टूबर 2017

राजस्थानी प्रेम कहानी : ढोला व मारू



राजस्थान की लोक कथाओं में बहुत सी प्रेम कथाएँ प्रचलित है पर इन सबमे ढोला मारू Dhola Maru प्रेम गाथा विशेष लोकप्रिय रही है|  इस गाथा की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आठवीं सदी की इस घटना का नायक ढोला राजस्थान में आज भी एक-प्रेमी नायक के रूप में स्मरण किया जाता है और प्रत्येक पति-पत्नी की सुन्दर जोड़ी को ढोला मारू की उपमा दी जाती है | यही नहीं आज भी लोक गीतों में स्त्रियाँ अपने प्रियतम को ढोला के नाम से ही संबोधित करती है, ढोला शब्द पति शब्द का प्रयायवाची ही बन चूका है |राजस्थान की ग्रामीण स्त्रियाँ आज भी विभिन्न मौकों पर ढोला मारू के गीत बड़े चाव से गाती है |

ढोला मारू प्रेमाख्यान का नायक ढोला नरवर के राजा नल का पुत्र था जिसे इतिहास में ढोला व साल्हकुमार के नाम से जाना जाता है|  ढोला का विवाह बालपने में जांगलू देश (बीकानेर) के पूंगल नामक ठिकाने के स्वामी पंवार राजा पिंगल की पुत्री मारवणी के साथ हुआ था | उस वक्त ढोला तीन वर्ष का मारवणी मात्र डेढ़ वर्ष की थी | इसीलिए शादी के बाद मारवणी को ढोला के साथ नरवर नहीं भेजा गया | बड़े होने पर ढोला की एक और शादी मालवणी के साथ हो गयी | बचपन में हुई शादी के बारे को ढोला भी लगभग भूल चूका था | उधर जब मारवणी प्रोढ़ हुई तो मां बाप ने उसे ले जाने के लिए ढोला को नरवर कई सन्देश भेजे | ढोला की दूसरी रानी मालवणी को ढोला की पहली शादी का पता चल गया था उसे यह भी पता चल गया था कि मारवणी जैसी बेहद खुबसूरत राजकुमारी कोई और नहीं सो उसने डाह व ईर्ष्या के चलते राजा पिंगल द्वारा भेजा कोई भी सन्देश ढोला तक पहुँचने ही नहीं दिया वह सन्देश वाहको को ढोला तक पहुँचने से पहले ही मरवा डालती थी |


उधर मारवणी के अंकुरित यौवन ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया | एक दिन उसे स्वप्न में अपने प्रियतम ढोला के दर्शन हुए उसके बाद तो वह ढोला के वियोग में जलती रही उसे न खाने में रूचि रही न किसी और कार्य में | उसकी हालत देख उसकी मां ने राजा पिंगल से ढोला को फिर से सन्देश भेजने का आग्रह किया, इस बार राजा पिंगल ने सोचा सन्देश वाहक को तो मालवणी मरवा डालती है इसीलिए इस बार क्यों न किसी चतुर ढोली को नरवर भेजा जाय जो गाने के बहाने ढोला तक सन्देश पहुंचा उसे मारवणी के साथ हुई उसकी शादी की याद दिला दे |

जब ढोली नरवर के लिए रवाना हो रहा था तब मारवणी ने उसे अपने पास बुलाकर मारू राग में दोहे बनाकर दिए और समझाया कि कैसे ढोला के सम्मुख जाकर गाकर सुनाना है | ढोली (गायक) ने मारवणी को वचन दिया कि वह जीता रहा तो ढोला को जरुर लेकर आएगा और मर गया तो वहीँ का होकर रह जायेगा |

चतुर ढोली याचक बनकर किसी तरह नरवर में ढोला के महल तक पहुँचने में कामयाब हो गया और रात होते ही उसने ऊँची आवाज में गाना शुरू किया | उस रात बादल छा रहे थे,अँधेरी रात में बिजलियाँ चमक रही थी ,झीणी-झीणी पड़ती वर्षा की फुहारों के शांत वातावरण में ढोली ने मल्हार राग में गाना शुरू किया ऐसे सुहाने मौसम में ढोली की मल्हार राग का मधुर संगीत ढोला के कानों में गूंजने लगा और ढोला फन उठाये नाग की भांति राग पर झुमने लगा तब ढोली ने साफ़ शब्दों में गाया –

ढोला नरवर सेरियाँ,धण पूंगल गळीयांह |”

गीत में पूंगल व मारवणी का नाम सुनते ही ढोला चौंका और उसे बालपने में हुई शादी की याद ताजा हो आई | ढोली ने तो मल्हार व मारू राग में मारवणी के रूप का वर्णन ऐसे किया जैसे पुस्तक खोलकर सामने कर दी हो | उसे सुनकर ढोला तड़फ उठा |

दाढ़ी (ढोली) पूरी रात गाता रहा | सुबह ढोला ने उसे बुलाकर पूछा तो उसने पूंगल से लाया मारवणी का पूरा संदेशा सुनाते हुए बताया कि कैसे मारवणी उसके वियोग में जल रही है |

आखिर ढोला ने मारवणी को लाने हेतु पूंगल जाने का निश्चय किया पर मालवणी ने उसे रोक दिया ढोला ने कई बहाने बनाये पर मालवणी उसे किसी तरह रोक देती | पर एक दिन ढोला एक बहुत तेज चलने वाले ऊंट पर सवार होकर मारवणी को लेने चल ही दिया और पूंगल पहुँच गया | मारवणी ढोला से मिलकर ख़ुशी से झूम उठी | दोनों ने पूंगल में कई दिन बिताये और एक दिन ढोला ने मारूवणी को अपने साथ ऊंट पर बिठा नरवर जाने के लिए राजा पिंगल से विदा ली | कहते है रास्ते में रेगिस्तान में मारूवणी को सांप ने काट खाया पर शिव पार्वती ने आकर मारूवणी को जीवन दान दे दिया | आगे बढ़ने पर ढोला उमर-सुमरा के षड्यंत्र में फंस गया, उमर-सुमरा ढोला को घात से मार कर मारूवणी को हासिल करना चाहता था सो वह उसके रास्ते में जाजम बिछा महफ़िल जमाकर बैठ गया | ढोला जब उधर से गुजरा तो उमर ने उससे मनुहार की और ढोला को रोक लिया | ढोला ने मारूवणी को ऊंट पर बैठे रहने दिया और खुद उमर के साथ अमल की मनुहार लेने बैठ गया | दाढ़ी गा रहा था और ढोला उमर अफीम की मनुहार ले रहे थे , उमर सुमरा के षड्यंत्र का ज्ञान दाढ़ी (ढोली) की पत्नी को था वह भी पूंगल की बेटी थी सो उसने चुपके से इस षड्यंत्र के बारे में मारूवणी को बता दिया |


मारूवणी ने ऊंट के एड मारी,ऊंट भागने लगा तो उसे रोकने के लिए ढोला दौड़ा, पास आते ही मारूवणी ने कहा – धोखा है जल्दी ऊंट पर चढो और ढोला उछलकर ऊंट पर चढ़ा गया | उमर-सुमरा ने घोड़े पर बैठ पीछा किया पर ढोला का वह काला ऊंट उसके कहाँ हाथ लगने वाला था | ढोला मारूवणी को लेकर नरवर पहुँच गया और उमर-सुमरा हाथ मलता रह गया |
नरवर पहुंचकर चतुर ढोला, सौतिहा डाह की नोंक झोंक का समाधान भी करता है। मारुवणी व मालवणी के साथ आनंद से रहने लगा |

इसी ढोला का पुत्र लक्ष्मण हुआ,लक्ष्मण का भानु और भानु का पुत्र परम प्रतापी बज्र्दामा हुआ जिसने अपने वंश का खोया राज्य ग्वालियर पुन: जीतकर कछवाह राज्यलक्ष्मी का उद्धार किया | आगे चलकर इसी वंश का एक राजकुमार दुल्हेराय राजस्थान आया जिसने मांची,भांडारेज,खोह,झोटवाड़ा आदि के मीणों को मारकर अपना राज्य स्थापित किया उसके बाद उसके पुत्र काकिलदेव ने मीणों को परास्त कर आमेर पर अपना राज्य स्थापित किया जो देश की आजादी तक उसके वंशजों के पास रहा | यही नहीं इसके वंशजों में स्व.भैरोंसिंहजी शेखावत इस देश के उपराष्ट्रपति बने व इसी वंश के श्री देवीसिंह शेखावत की धर्म-पत्नी श्रीमती प्रतिभापाटिल आज इस देश की महामहिम राष्ट्रपति है |ढोला को रिझाने के लिए दाढ़ी (ढोली) द्वारा गाये कुछ दोहे –

आखडिया डंबर भई, नयण गमाया रोय |
क्यूँ साजण परदेस में,  रह्या बिंडाणा होय ||
आँखे लाल हो गयी है,  रो रो कर नयन गँवा दिए है,
साजन परदेस में क्यों पराया हो गया है |
दुज्जण बयण न सांभरी, मना न वीसारेह |
कूंझां लालबचाह ज्यूँ, खिण खिण चीतारेह ||

बुरे लोगों की बातों में आकर उसको (मारूवणी को) मन से मत निकालो | कुरजां पक्षी के लाल बच्चों की तरह वह क्षण क्षण आपको याद करती है | आंसुओं से भीगा चीर निचोड़ते निचोड़ते उसकी हथेलियों में छाले पड़ गए है |

जे थूं साहिबा न आवियो, साँवण पहली तीज |
बीजळ तणे झबूकडै, मूंध मरेसी खीज ||

यदि आप सावन की तीज के पहले नहीं गए तो वह मुग्धा बिजली की चमक देखते ही खीजकर मर जाएगी | आपकी मारूवण के रूप का बखान नहीं हो सकता | पूर्व जन्म के बहुत पुण्य करने वालों को ही ऐसी स्त्री मिलती है |

नमणी, ख़मणी, बहुगुणी, सुकोमळी सुकच्छ |
गोरी गंगा नीर ज्यूँ , मन गरवी तन अच्छ ||

बहुत से गुणों वाली, क्षमाशील,नम्र व कोमल है, गंगा के पानी जैसी गौरी है, उसका मन और तन श्रेष्ठ है |

गति गयंद,जंघ केळ ग्रभ, केहर जिमी कटि लंक |
हीर डसण विप्रभ अधर, मरवण भ्रकुटी मयंक ||
हाथी जैसी चाल, हीरों जैसे दांत, मूंग सरीखे होठ है |

आपकी मारवणी की सिंहों जैसी कमर है, चंद्रमा जैसी भोएं है |

आदीता हूँ ऊजलो, मारूणी मुख ब्रण |
झीणां कपड़ा पैरणां, ज्यों झांकीई सोब्रण ||

मारवणी का मुंह सूर्य से भी उजला है,  झीणे कपड़ों में से शरीर यों चमकता है मानो स्वर्ण झाँक रहा हो |

दोहे व उनका भावार्थ रानी लक्ष्मीकुमारी चुण्डावत द्वारा लिखित पुस्तक “राजस्थान की प्रेम कथाएँ” से लिए गए है व चित्र गूगल खोज परिणामों से |

रविवार, 15 अक्टूबर 2017

कहानी एक राजपूतानी की….

गर्मियों का मौसम था बाड़मेर संभाग में रेत के टीले गर्मी से गर्म होकर अंगारों की तरह दहक रहे थे| लूएँ ऐसे चल रही थी कि बाहर बैठे जीव को झुलसा दे| इस तरह नीचे धरती गर्मी से तप रही थी तो ऊपर आसमान झुलस रहा था| वहीँ खेजडे के एक पेड़ की छाया में बैठा एक सोढा राजपूत जवान बाहर की गर्मी की साथ भीतर से उठ रहे विचारों के दावानल से दहक रहा था| पेड़ की छाया में बैठ विचारों में खोये उस सोढा राजपूत जवान को पता ही नहीं चला कि कब छाया ढल गयी और उसके चेहरे पर कब तपते सूरज की किरणे पड़ने लग गयी| वह तो विचारों के भंवर में ऐसा खोया था कि उसके लिए तो आज चारों दिशाएँ व सभी मौसम एक जैसे ही थे| आज ही उसके होने वाले ससुर का सन्देश आया था कि – 
“यदि उसकी बेटी के साथ शादी करनी है तो दो हजार रूपये भेजवा दें नहीं तो तुम्हारा रिश्ता तोड़कर तुम्हारी मंगेतर की शादी कहीं और करवा दी जाएगी|”

ये सन्देश सुनने के बाद उस जवान सोढा राजपूत का गुस्सा सातवें आसमान था, गुस्से में उसके दांत कटकटा रहे थे चेहरा लाल था आखों में भी लाल डोरे साफ़ नजर आ रहे थे| सन्देश पढ़ते ही अपने आप उसका हाथ कमर पर बंधी तलवार की मूंठ पर जा ठहरा| आखिर उसकी मंगेतर जिसकी उसके माँ बाप ने आज से दस वर्ष पहले गोद भराई की रस्म पुरी कर उसके साथ रिश्ता किया था और बेचारे पुत्र की शादी करने के मंसूबे मन में बांधे ही इस दुनियां से चल बसे| माता पिता की मृत्यु के बाद बड़ी मुश्किल से उसने अपने आपको संभाला पर फिर भी जी तो गरीबी में ही रहा है इसलिए अब ससुर को देने के लिए दो हजार रूपये कहाँ से लाये| बचपन से ही खेत खलिहान भी सेठ धनराज के यहाँ गिरवी पड़े है| अब क्या गिरवी रखे कि उसे दो हजार जैसी बड़ी रकम मिल जाए ?

यही सब सोचते हुए उस जवान सोढा राजपूत की आँखों में खून उतर आया था| उसने मन में सोच लिया था उसके जिन्दा रहते उसकी मंगेतर जिससे शादी करने के सपने वह पिछले दस वर्षों से देख रहा था किसी और की हो ही नहीं सकती| यही सोचकर वह सेठ धनराज के पास दो हजार रूपये के कर्ज के लिए पहुंचा|

सेठ को सारी बात बताते हुए उसने कहा- “सेठ काका ! अब मेरी इज्जत बचाना आपके हाथ में है|

सेठ बोला- “इज्जत तो मैंने बहुतों की बचाई है तेरी भी बचा दूंगा पर यह बता दो हजार जितनी बड़ी रकम के लिए तेरे पास गिरवी रखने को क्या है ?”

सेठ काका- “जमीन तो जितनी थी पहले ही आपके पास गिरवी रखी है अब मेरे पास तो सिर्फ यह तलवार बची है और आपको पता है ना कि एक राजपूत के लिए तलवार की क्या कीमत होती है ? आप इसे ही गिरवी रखलें|

सेठ बोला- “इस तलवार का मैं क्या करूँ ? तूं किसी और सेठ के जा कर कर्ज ले ले|

सोढा जवान सेठ की बात सुनकर अन्दर तक तड़फते हुए कहने लगा- “सेठ काका ! मेरे पुरखों की वो जमीन जिसे पाने के लिए उन्होंने सिर कटवाए थे उसको आपने झूंठ लिख लिखकर अपने पास गिरवी रख लिया मेरे घर का एक एक बर्तन तक आपने अपनी कलम की झूंठ के बल से ठग लिए| फिर भी मैंने आपको सब कुछ दिया और अब भी आप जो मांगे वो देने के लिए तैयार हूँ| यह मेरे घराने की साख का सवाल है| आपको पता है मेरे जीते जी मेरी मंगेतर का विवाह किसी और से हो जायेगा तो मेरे लिए तो यह जीवन बेकार है| मैं तो जीवित ही मरे समान हो जाऊंगा| आपको जितना ब्याज लेना है ले लो पर अभी आज मुझे दो हजार रूपये का कर्ज दे दो| आपका कर्ज में ईमानदारी से चूका दूंगा यह एक राजपूत का वादा है|”

सेठ-“ठीक है ! यदि तूं राजपूतानी का जाया है तो एक वचन दे| मैं जो लिखूंगा उस पर दस्तखत कर देगा ?

सोढा जवान ने हाँ कह वचन देने की हामी भर ली| सेठ ने एक पत्र पर एक शर्त लिखी और सोढा राजपूत के हाथ में यह कहते हुए थमा दी कि- “असल राजपूत है और हिम्मत है तो ये पत्र ले शर्त पढ़कर दस्तखत करदे| उस पत्र में शर्त लिखी थी- “जब तक सेठ धनराज का कर्ज ब्याज सहित ना चूका दूंगा तब तक अपनी पत्नी को बहन के समान समझूंगा|”

पत्र में लिखी शर्त पढ़ते ही सोढा की आँखों में अंगारे बरसने लगे उसकी आँखें लाल हो गयी पर उसने अपने गुस्से को दबाते हुए पिसते दांतों को होठों के पीछे छुपाकर दस्तखत कर दिए|

सेठ से मिले कर्ज के दो हजार रूपये ससुर के पास समय से पहले भिजवाकर सोढा ने अपनी मंगेतर से शादी कर अपना घर बसा लिया| आज कई वर्षों बाद उसका दीमक लगा टुटा फूटा घर लिपाई पुताई कर सजा संवरा था| ससुराल से दहेज़ में आया सामान भी घर में तरतीब से सजा था| आँगन में आज छम छम पायल की आवाज सुनाई दे रही थी तो शाम को बाजरे की रोटियों को थपथपाने के साथ चूड़ियों की आवाज भी साफ़ सुनाई दे रही थी| सोढा खाने के लिए बैठा था और उसकी सजी संवरी पत्नी अपने हाथों से उसे खाना परोस रही थी| सोढा खाना खाते हुए भी बड़ा गंभीर नजर आ रहा था तो दूसरी और उसकी पत्नी की आँखों में उसके लिए जो प्यार उमड़ रहा था उसे सोढा साफ़ देख रहा था| पत्नी खाने में ये परोसूं या ये कह कह कर बात करने की कोशिश कर रही थी| सोढा भी बोलना तो चाह रहा था पर बोल नहीं पा रहा था| सोढा खाना खाकर उठा राजपूतानी ने झट से खड़े होकर पानी का लौटा ले सोढा के हाथ धुलवाये| हाथ धोते समय घूंघट के पीछे उसका दमकता चेहरा देख सोढा के हाथ कांप गए| रात पड़ी, सोने का समय हुआ, दोनों ढोलिया पर सो गए पर यह क्या ? सोढा ने म्यान से तलवार निकाली और दोनों के बीच रख मुंह फिरा सो गया|

राजपूतानी सोचने लगी- “शायद मेरे से किसी बात पर नाराज है या मेरे पिता द्वारा शादी से पहले दो हजार रूपये लेने के कारण नाराज है|

एक, दो, तीन इस तरह कोई बीस दिन बीत गए हर रोज सोते समय दोनों के बीच तलवार होती| राजपूतानी को सोढा का यह व्यवहार समझ ही नहीं आ रहा था दिन में तो बात करते सोढा के मुंह से फूल बरसते है आखों से बरसता नेह भी साफ़ झलकता है पर रात होते ही वह नजर नहीं मिलाता, उसका चेहरा मुरझाया होता है, बोल होठों से बाहर आते ही नहीं| राजपूतानी ने रोज सोढा का व्यवहार का बारीकी से देखा समझा और एक दिन बोली- 
“यदि आप मेरे पिता द्वारा रूपये मांगे जाने से नाराज है तो इसमें मेरी कोई गलती नहीं पर यदि मेरे द्वारा कोई अनजाने में गलती हुयी हो तो उसके लिए बताएं मैं आपसे माफ़ी मांग लुंगी पर आप नाराज ना रहे|”

सोढा ने कहा-“ऐसी कोई बात नहीं है यह कोई और ही बात है जो मैं आपको चाहते हुए भी बता नहीं सकता| बताने की कोशिश भी करता हूँ तो शब्द होठों तक नहीं आते|” और कहते कहते सोढा ने वह सेठ द्वारा लिखा पत्र राजपूतानी को पकड़ा दिया|

दिये की बाती ऊँची कर उसके टिम टिम करते प्रकाश में राजपूतानी ने वह पत्र पढना शुरू किया उसने जैसे जैसे वह पत्र पढ़ा उसके चेहरे पर तेज बढ़ता गया उसके बेसब्र मन ने राहत की साँस ली| पत्र पढने के बाद उसे अपने पति पर गर्व हुआ कि वह राजपूती धर्म निभाने वाले एक सच्चे राजपूत की पत्नी है और एक राजपूतानी के लिए इससे बड़ी गर्व की क्या बात हो सकती है|

पूरा पत्र पढ़ राजपूतानी बेफिक्र हो बोली –“बस यही छोटी सी बात थी| मुझे तो दूसरी ही चिंता थी| वचन निभाना तो एक राजपूत और राजपूतानी के लिए बहुत ही आसान काम है|” और कहते हुए राजपूतानी ने अपने सारे गहने आदि लाकर पति के आगे रख दिए| और बोली- 
“इनको बेचकर घोड़ा खरीद लाईये| कर्ज उतरना सबसे पहला धर्म है और वो घर बैठे नहीं चुकेगा| घर तो कृषक बैठते है राजपूत को घर बैठना वैसे भी शोभा नहीं देता| राजपूत की शोभा तो किसी राजा की सेना में ही होती है|

सोढा बोला-“ठीक है फिर घोड़ा ले मैं किसी की राजा की नौकरी में चला जाता हूँ और तुझे अपने मायके छोड़ देता हूँ|”

राजपूतानी बोली-“मैंने भी एक राजपूत के घर जन्म लिया है, एक राजपूतानी का दूध पिया है, मुझे भी कमर पर तलवार बंधना व चलाना और घुड़सवारी करना आता है| बचपन में पिता के घर खूब घोड़े दौड़ाये है इसलिए मायके क्यों जाऊं आपके साथ चलूंगी| दोनों कमाएंगे तो कर्ज जल्दी चुकेगा|”

ऐसे शब्द बोलती हुयी राजपूतानी के चेहरे को तेज को देख सोढा तो देखता रह गया|

सुबह का निकला सूरज अब आकाश में काफी ऊँचा चढ़ चूका था| चितौड़ किले की तलहटी से दो एक किलोमीटर दूर दो बांके जवान घोड़े दौड़ाते हुए किले की तरफ आते नजर आ रहे थे| उनके हाथों में पकड़े भाले सूरज की किरणों से पल पल कर चमक रहे थे| दोनों की कमर में बंधी तलवारें दोड़ते घोड़ों की पीठ से रगड़ खा रही थी| उन्हें देखकर कौन कह सकता था कि- इनमें से एक मर्द की पौशाक में नारी है| राजपूतानी इस वक्त मर्दाना भेष में जोश से भरा एक जवान लग रही थी| हाथों में भाला पकड़े उसने अपनी कोयल सी मधुर आवाज को भी मर्दों की तरह भारी कर लिया था| घूंघट में रहने वाला चेहरा आज सूरज की रौशनी में दमक रहा था| बड़ी बड़ी आँखों ने लाल लाल डोरे ऐसे नजर आ रहे थे जैसे देश प्रेम का मतवाला कोई बांका जवान दुश्मन की सेना पर आक्रमण के लिए चढ़ा हो| घोड़ो को दौड़ाते हुए थोड़ी ही देर में वे किले की तलहटी में जा पहुंचे| उधर उनका किले के मुख्य दरवाजे की और जाना हुआ उधर से किले से राणा का अपने दल बल सहित शिकार के लिए निकलना हुआ| दो बाकें जवानों को देखते ही राणा की नजरें दोनों पर एकटक अटक गयी| पास बुलाकर पूछा-

कौन हो ? कहाँ से आये हो ? क्यों आये हो ?

राणा को जबाब मिला- “राजपूत है|”

कौन से ?

सोढा ! और आपकी सेवा में चाकरी करने आयें है|

ठीक है शिकार में ही साथ हो जाओ| राणा ने उनकी सेवा स्वीकारते हुए कहा|

दोनों राणा के साथ हो गए| जंगल में शिकार शुरू हुआ, एक सूअर पर शिकारी दल ने तीरों भालों से हमला किया पर सूअर भाग खड़ा हुआ और राणा के सरदारों ने उसके पीछे घोड़े दौड़ा दिए| चारों और से हाका करने वालों ने हाका करना शुरू कर दिया उधर गया है, घोड़ा पीछे दौड़ाओ, सूअर भाग ना पाये|

राणा ने देखा सभी सरदारों व शिकारी दल के घोड़े सूअर के पीछे लग गए उनमें से एक घोड़ा अचानक बिजली की गति से आगे निकला और घोड़े के सवार ने सूअर का पीछा कर उस पर भाला फैंका जो सूअर की आंते बाहर निकालता हुआ सूअर के शरीर से पार हो गया| राणा के मुंह से अचानक निकल पड़ा –शाबास ! आजतक ऐसा नजारा नहीं देखा कि किसी का भाला सूअर की आंते निकालकर पार निकल गया हो|

घोड़े से उतर पसीना पोंछते सवार ने राणा को झुककर मुजरा किया और वापस घोड़े की पीठ पर जा सवार हुआ| कोई नहीं पहचान सका कि एक हाथ से भाले का वार कर सूअर को धुल चटाने वाला जवान मर्द नहीं एक औरत है|

राणा उनकी वीरता से खुश व प्रभावित होते हुए और उन्हें अपनी सेवा में नियुक्त करते हुए हुक्म दिया कि –“वे दोनों उनके महल में उनके शयन कक्ष की सुरक्षा में तैनात रहेंगे|”

“खम्मा अन्न दाता” कह दोनों ने राणा की चाकरी स्वीकारी|

सावन का महिना, रिमझिम रिमझिम फुहारों से बारिश बरस रही, नदी नाले भी खल खल कर बह रहे, चारों और हरियाली ही हरियाली छा रही, तालाब पानी से भरे हुए और रात भर मेंडकों की टर्र टर्र आवाजें आ रही, अंधरी रात्री और ऊपर से काले काले बादल छाये हुए, बिजली चमके तो आँखें बंद हो जाए, बादल ऐसे गरज रहे जैसे इंद्र गरज कर कह रहा हो कि धरती को इसी तरह पीस दूंगा, ऐसे अंधरी व भयानक पर मनोहारी रात, ऐसी रात जिसमें हाथ को हाथ ना दिखे जिसमें दोनों राणा के शयन कक्ष के बाहर पहरा दे रहे और राणा जी अपने शयन कक्ष में निश्चिन्त हो रानी के साथ सो रहे थे|

दोनों हाथों में नंगी तलवारे लिए पहरा दे रहे थे जैसे ही बिजली चमकती तो टकराने वाले प्रकाश से तलवारें भी अँधेरी काली रात में चमक उठती| आधी रात का वक्त हो चूका था राणा जी गहरी नींद में सो रहे थे पर आज पता नहीं क्यों रानी को नींद नहीं आ रही थी| सो वह पलंग पर लेटी लेटी महल की खिड़की से प्रकृति के अद्भुत नज़ारे देख रही थी|
महल के द्वार पर दो राजपूत हाथों में तलवारें लिए पहरा देते हुए चौकस हो खड़े थे|

इतनी ही देर में उतर दिशा से बिजली चमकी जिसे देख राजपूतानी को याद आई कि यह तो मेरे देश की तरफ से चमकी है और वह इस याद के साथ ही विचारों में खो गयी उसके नारी हृदय में विचारों की उथल पुथल मच गयी कि आज ऐसे मौसम में सभी स्त्रियाँ अपने पति के साथ घर में सो रही है और वह खाने कमाने के लिए मर्दाना भेष में तलवार हाथ में पकड़े यहाँ पहरे पर खड़ी है| तभी पपीहे की मधुर आवाज उसे सुनाई दी और सुनते ही उसका नारी हृदय कराह उठा और मन में फिर विचार आने लगा कि वह तो सुहागन होते हुए वियोगन हो गयी, पति के पास होते हुए भी ऐसा लग रहा है जैसे वह पति से कोसों दूर है| पति के साथ रहते हुए भी वह वियोगी है उससे तो पति से दूर रहने वाली वियोगी नारी ही अच्छी और सोचते सोचते उसकी सब्र का बाँध टूट गया और सोढा के पास जाकर धीरे से उसके कंधे पर हाथ रख दिया| हाथ रखते ही दोनों ऐसे कांप गए जैसे उन पर बिजली टूट पड़ी हो| सोढा ने चेताते हुए कहा-“राजपूतानी संभल !
राजपूतानी सोढा द्वारा चेताने पर अपने आपको एक गहरी निस्वाश: छोड़ते हुए सँभालते हुए बोली-

देस बिया घर पारका, पिय बांधव रे भेस |
जिण जास्यां देस में, बांधव पीव करेस ||

अपना देश छुट गया और अब परदेश में है| पति पास है पर वह भाई रूप में है | जब कभी अपने वतन जायेंगे तो पति को पति बनायेंगे|

चमकती बिजली की रौशनी में रानी सोये सोये दोनों की पुरी लीला देख रही थी| सुबह होते ही रानी ने राणा जी से कहा कि – 
“इन दोनों सोढा राजपूत भाइयों में कोई भेद है क्योंकि इनमें से एक औरत है|”

नहीं रानी ! ऐसा नहीं हो सकता और ऐसा है तो धोखा करने के जुर्म में मैं इनका सिर तोड़ दूंगा| राणा ने कहा|
“राणा जी ! तोड़ने की जरुरत नहीं जोड़ने की जरुरत है क्योंकि इनमें एक औरत है|” रानी ने राणा को जबाब दिया|
राणा बोले-“रानी भोली बात मत किया करो ! इनकी रोबदार सूरत, इनकी आँखों के तेवर व इनके चेहरे के तेज को देखो ऐसा तेज किसी मर्द में ही हो सकता है फिर मैंने तो एक खतरनाक सूअर को एक ही वार में मारते हुए इनकी वीरता भी देखी है|”

राणा और रानी में इस बात को लेकर विवाद हुआ और फिर इनकी परीक्षा लेनी की बात तय हुई| रानी ने दोनों की परीक्षा लेने की जिम्मेदारी खुद ली और दोनों को रानी ने दोनों को अपने में बुला लिया, साथ ही राणा जी को जाली से छुपकर देखने को कहा|

रानी ने चूल्हे पर दूध चढ़ा अपनी दासी को चुपचाप बाहर जाने का ईशारा कर दिया दासी रसोई से चली गयी, थोड़ी देर में दूध उफनने ही वाला था | जिसे पर नजर पड़ते ही राजपूतानी तुरंत चिल्ला पड़ी- “दूध उफनने वाला है दूध उफनने वाला है ! 
सुनते ही पास के कक्ष से निकल रानी बोल पड़ी- “बेटी सच बता तूं कौन है ? और इस भेष में क्यों ? मुझसे कुछ भी मत छुपा सच सच बता|”

राजपूतानी आँखों पर हाथ दे रानी की गोद में चिपट गयी और सोढा बे रानी को पुरी बात बताई| राणा जी भी कक्ष के बाहर जाली के पीछे खड़े सब सुन रहे थे| पुरी बात सुनकर राणा जी बड़े खुश हुए बोले- 
“मैं एक सवार को रूपये देकर तुम्हारे गांव आज ही भेज देता हूँ वह सेठ धनराज से तुम्हारे कर्ज का पूरा हिसाब कर ब्याज सहित रकम चुका आयेगा| और तुम यहीं रहो और अपनी गृहस्थी बसावो|”

राणा जी के आगे हाथ जोड़ते हुए सोढा बोला- “अन्न दाता का हुक्म सिर माथे ! पर अन्न दाता जब तक मैं अपने हाथ से सेठ का कर्ज नहीं चूका देता तब तक शर्तनामा लिखा पत्र नहीं फाड़ सकता| इसलिए मुझे कर्ज चुकाने के लिए स्वयं जाने की इजाजत बख्सें|”

राणा जी ने सोढा को ब्याज सहित पूरा कर्ज चुकाने व गृहस्थी बसाने लायक धन देकर विदा किया| 
अब सोढा और राजपूतानी को जब भी उस रात की याद आती दोनों को बड़ी मीठी लगती|

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