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बुधवार, 28 नवंबर 2018

हल्दीघाटीका द्वितीय युद्ध......इतिहास यह भी है जो आप नही जानते होंगे।।

क्या आपने कभी पढ़ा है कि हल्दीघाटी के बाद अगले १० साल में मेवाड़ में क्या हुआ..इतिहास से जो पन्ने हटा दिए गए हैं उन्हें वापस संकलित करना ही होगा क्योंकि वही हिंदू सामर्थ्य और शौर्य के प्रतीक हैं। इतिहास में यह कभी नहीं पढ़ाया गया है की हल्दीघाटी युद्ध में जब महाराणा प्रताप ने कुंवर मानसिंह के हाथी पर जब प्रहार किया तो शाही फ़ौज पांच छह कोस दूर तक भाग गई थी और अकबर के आने की अफवाह से पुनः युद्ध में सम्मिलित हुई है। ये वाकया अबुल फज़ल की पुस्तक अकबरनामा में दर्ज है।

क्या हल्दीघाटी अलग से एक युद्ध था..या एक बड़े युद्ध की छोटी सी घटनाओं में से बस एक शुरूआती घटना..महाराणा प्रताप को इतिहासकारों ने हल्दीघाटी तक ही सीमित करके मेवाड़ के इतिहास के साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है। वास्तविकता में हल्दीघाटी का युद्ध , महाराणा प्रताप और मुगलो के बीच हुए कई युद्धों की शुरुआत भर था। मुग़ल न तो प्रताप को पकड़ सके और न ही मेवाड़ पर अधिपत्य जमा सके।

हल्दीघाटी के बाद क्या हुआ उसकी बानगी देखिए।

हल्दीघाटी के युद्ध के बाद महाराणा के पास सिर्फ 7000 सैनिक ही बचे थे..और कुछ ही समय में मुगलों का कुम्भलगढ़, गोगुदा , उदयपुर और आसपास के ठिकानों पर अधिकार हो गया था। उस स्थिति में महाराणा ने “गुरिल्ला युद्ध” की योजना बनायी और मुगलों को कभी भी मेवाड़ में स्थिर नहीं होने दिया। महराणा के शौर्य से विचलित अकबर ने उनको दबाने के लिए 1576 में हुए हल्दीघाटी के बाद भी हर साल 1577 से 1582 के बीच एक एक लाख के सैन्यबल भेजे जो कि महाराणा को झुकाने में नाकामयाब रहे।

हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात् महाराणा प्रताप के खजांची भामाशाह और उनके भाई ताराचंद मालवा से दंड के पच्चीस लाख रुपये और दो हज़ार अशर्फिया लेकर हाज़िर हुए। इस घटना के बाद महाराणा प्रताप ने भामाशाह का बहुत सम्मान किया और दिवेर पर हमले की योजना बनाई। भामाशाह ने जितना धन महाराणा को राज्य की सेवा के लिए दिया उस से 25 हज़ार सैनिकों को 12 साल तक रसद दी जा सकती थी। बस फिर क्या था..महाराणा ने फिर से अपनी सेना संगठित करनी शुरू की और कुछ ही समय में 40000 लडाकों की एक शक्तिशाली सेना तैयार हो गयी।

उसके बाद शुरू हुआ हल्दीघाटी युद्ध का दूसरा भाग जिसको इतिहास से एक षड्यंत्र के तहत या तो हटा दिया गया है या एकदम दरकिनार कर दिया गया है। इसे बैटल ऑफ़ दिवेर कहा गया गया है.

बात सन १५८२ की है, विजयदशमी का दिन था और महराणा ने अपनी नयी संगठित सेना के साथ मेवाड़ को वापस स्वतंत्र कराने का प्रण लिया। उसके बाद सेना को दो हिस्सों में विभाजित करके युद्ध का बिगुल फूंक दिया..एक टुकड़ी की कमान स्वंय महाराणा के हाथ थी दूसरी टुकड़ी का नेतृत्व उनके पुत्र अमर सिंह कर रहे थे। कर्नल टॉड ने भी अपनी किताब में हल्दीघाटी को Thermopylae of Mewar और दिवेर के युद्ध को राजस्थान का मैराथन बताया है। ये वही घटनाक्रम हैं जिनके इर्द गिर्द आप फिल्म 300 देख चुके हैं। कर्नल टॉड ने भी महाराणा और उनकी सेना के शौर्य, तेज और देश के प्रति उनके अभिमान को स्पार्टन्स के तुल्य ही बताया है जो युद्ध भूमि में अपने से 4 गुना बड़ी सेना से यूँ ही टकरा जाते थे।

दिवेर का युद्ध बड़ा भीषण था, महाराणा प्रताप की सेना ने महाराजकुमार अमर सिंह के नेतृत्व में दिवेर थाने पर हमला किया , हज़ारो की संख्या में मुग़ल, राजपूती तलवारो बरछो भालो और कटारो से बींध दिए गए। युद्ध में महाराजकुमार अमरसिंह ने सुलतान खान मुग़ल को बरछा मारा जो सुल्तान खान और उसके घोड़े को काटता हुआ निकल गया। उसी युद्ध में एक अन्य राजपूत की तलवार एक हाथी पर लगी और उसका पैर काट कर निकल गई। महाराणा प्रताप ने बहलोल खान मुगल के सर पर वार किया और तलवार से उसे घोड़े समेत काट दिया। शौर्य की ये बानगी इतिहास में कहीं देखने को नहीं मिलती हैउसके बाद यह कहावत बनी की मेवाड़ में सवार को एक ही वार में घोड़े समेत काट दिया जाता है। ये घटनाये मुगलो को भयभीत करने के लिए बहुत थी। बचे खुचे ३६००० मुग़ल सैनिकों ने महाराणा के सामने आत्म समर्पण किया। दिवेर के युद्ध ने मुगलो का मनोबल इस तरह तोड़ दिया की जिसके परिणाम स्वरुप मुगलों को मेवाड़ में बनायीं अपनी सारी 36 थानों, ठिकानों को छोड़ के भागना पड़ा, यहाँ तक की जब मुगल कुम्भलगढ़ का किला तक रातो रात खाली कर भाग गए।

दिवेर के युद्ध के बाद प्रताप ने गोगुन्दा , कुम्भलगढ़ , बस्सी, चावंड , जावर , मदारिया , मोही , मंडलगढ़ जैसे महत्त्वपूर्ण ठिकानो पर कब्ज़ा कर लिया। इसके बाद भी महाराणा और उनकी सेना ने अपना अभियान जारी रखते हुए सिर्फ चित्तौड़ को छोड़ के मेवाड़ के सारे ठिकाने/दुर्ग वापस स्वतंत्र करा लिए।

अधिकांश मेवाड़ को पुनः कब्जाने के बाद महाराणा प्रताप ने आदेश निकाला की अगर कोई एक बिस्वा जमीन भी खेती करके मुसलमानो को हासिल (टैक्स) देगा , उसका सर काट दिया जायेगा। इसके बाद मेवाड़ और आस पास के बचे खुचे शाही ठिकानो पर रसद पूरी सुरक्षा के साथ अजमेर से मगाई जाती थी।

दिवेर का युद्ध न केवल महाराणा प्रताप बल्कि मुगलो के इतिहास में भी बहुत निर्णायक रहा। मुट्ठी भर राजपूतो ने पुरे भारतीय उपमहाद्वीप पर राज करने वाले मुगलो के ह्रदय में भय भर दिया। दिवेर के युद्ध ने मेवाड़ में अकबर की विजय के सिलसिले पर न सिर्फ विराम लगा दिया बल्कि मुगलो में ऐसे भय का संचार कर दिया की अकबर के समय में मेवाड़ पर बड़े आक्रमण लगभग बंद हो गए।

इस घटना से क्रोधित अकबर ने हर साल लाखों सैनिकों के सैन्य बल अलग अलग सेनापतियों के नेतृत्व में मेवाड़ भेजने जारी रखे लेकिन उसे कोई सफलता नहीं मिली। अकबर खुद 6 महीने मेवाड़ पर चढ़ाई करने के मकसद से मेवाड़ के आस पास डेरा डाले रहा लेकिन ये महराणा द्वारा बहलोल खान को उसके घोड़े समेत आधा चीर देने के ही डर था कि वो सीधे तौर पे कभी मेवाड़ पे चढ़ाई करने नहीं आया।

ये इतिहास के वो पन्ने हैं जिनको दरबारी इतिहासकारों ने जानबूझ कर पाठ्यक्रम से गायब कर दिया है। जिन्हें अब वापस करने का प्रयास किया जा रहा है।

बुधवार, 15 नवंबर 2017

गोरा और बादल का इतिहास

गोरा और बादल चित्तौड़गढ़ मेवाड़ के महान योद्धाओं में से एक थे, जो चित्तौड़गढ़ मेवाड़ के रावल रतन सिंह के बचाव के लिए बहादुरी से लड़े थे | गोरा ओर बदल दोनों चाचा भतीजे जालोर के चौहान वंश से सम्बन्ध रखते थे | छल द्वारा 1298 में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़गढ़ मेवाड़ के शाशक रावल रतन सिंह को कैदी बना दिया था | फिरौती में खिलजी ने, चित्तौड़गढ़ मेवाड़ के रावल रतन सिंह कि पत्नी रानी पद्मिनी कि माँग कि थी | यह सब होने के बाद रानी पद्मिनी ने एक युद्ध परिषद आयोजित की जिसमे रावल रतन सिंह को बचाने कि योजना बनाई गयी | रावल रतन सिंह को बचाने का जिम्मा गोरा ओर बादल को दिया गया | गोरा ओर उसके भतीजे बादल को अलाउद्दीन खिलजी के पास दूत बना कर भेजा गया ओर संदेश पहुँचाया गया कि रानी पद्मिनी को खिलजी को सोप दिया जयेगा अगर खिलजी अपनी सेनाये चित्तौड़गढ़ मेवाड़ से हटा दे, पर एक शर्त यह है कि जब रानी पद्मिनी को खिलजी को सोपा जयेगा तब रानी पद्मिनी कि दसिया ओर सेवक 50 पालकियो में साथ होगी | जब रानी पद्मिनी को खिलजी को सोपा जा रहा था तो हर एक पालकि में 2 अच्छे अच्छे राजपूत योधा को बिठाया गया | जब रानी पद्मिनी कि पालकि जिसमे गोरा ख़ुद भी बैठा था, जब रत्न सिंह के टेंट के पास पहुँची तो गोरा ने रतन सिंह के टेंट में जाके रत्न सिंह को घोड़े पे बैठने को बोला ओर कहा कि आप किले(चित्तौड़गढ़) में वापस चले ज्यों | उसके बाद गोरा ने सभी राजपूत योद्धाओं को उनकी पालकी से बाहर आने को कहा ओर बोला कि मुस्लिम सैनिकों पर हमला करो | गोरा खिलजी के तम्बू तक पहुँचा और सुल्तान को मारने ही वाला था पर सुल्तान अपनी उपपत्नी के पीछे छिप गया | गोरा एक राजपूत था ओर राजपूत मासूम महिलाओं को नहीं मारते, इसलिए गोरा ने उस महिला पे हाथ नही उठाया | ओर सुल्तान के सैनिकों से युध करते हुए गोरा ओर बदल वीर गति को प्राप्त हुए | चित्तौड़गढ़ किले में रानी पद्मिनी के महल के दक्षिण में दो गुंबद के आकार घरों का निर्माण किया गया है जिन्हें गोरा बादल के महल के नाम से जाना जाता है 

बुधवार, 1 नवंबर 2017

एक_ने_झटके_से_दुपट्टे_के_तार_निकाले_तो_दुसरे_ने_घोड़े_को_हाथ_से_उठा_लिया

राव विरमदेव के स्वर्गवास होने के बाद राव जयमल मेड़ता के शासक बने, चूँकि जयमल को बचपन से ही जोधपुर के शक्तिशाली शासक राव मालदेव के मन में मेड़ता के खिलाफ घृणा का पता था, साथ ही जयमल राव मालदेव की अपने से दस गुना बड़ी सेना का कई बार मुकाबला कर चुका थे| अत: उन्हें विश्वास था कि मालदेव मौका मिलते ही मेड़ता पर आक्रमण अवश्य करेंगे| सो उन्होंने शुरू से सैनिक तैयारियां जारी रखी और अपने सीमित संसधानों के अनुरूप सेना तैयार की| हालाँकि जोधपुर राज्य के सामने उसके पास संसाधन क्षीण थे|

आखिर संवत १६१० में राव मालदेव विशाल सेना के साथ मेड़ता पर आक्रमण हेतु अग्रसर हुए| जयमल चूँकि जोधपुर की विशाल सेनाएं अपने पिता के राज्यकाल में देख चुके थे, उन्हें पता था कि जोधपुर के आगे उनकी शक्ति कुछ भी नहीं| सो उन्होंने बीकानेर से सहायता लेने के साथ ही मालदेव से संधि कर युद्ध रोकने की कोशिश की, चूँकि सेनाओं में दोनों और के सैनिक व सामंत सभी आपसी निकट संबंधी ही थे सो जयमल नहीं चाहते थे कि निकट संबंधी या भाई आपस में लड़े मरे, सो उन्होंने मालदेव के एक सेनापति पृथ्वीराज जैतावत को संदेश भेजकर संधि की बात की व भाईचारा कायम रखते हुए युद्ध बंद करने हेतु अपने दो सामंत अखैराज भादा व चांदराज जोधावत को अपना दूत बना मालदेव के शिविर में भेजा|

जयमल के दूतों ने मालदेव से युद्ध रोकने की विनती करते हुए कहा जयमल का संदेश दिया कि– “हम आप ही के छोटे भाई है और आपकी सेवा चाकरी करने के लिए तैयार है सो हमसे युद्ध नहीं करे|” राव मालदेव ने बड़े अहम् भाव से दूतों से कहा – “अब तो हम जयमल से मेड़ता छिनेंगे|” दूत अखैराज ने कहा- “मेड़ता कौन लेता है और कौन देता है, जिसने आपको जोधपुर दिया उसी ने हमको मेड़ता दिया|”

इस पर राव मालदेव ने व्यंग्य से कहा – “जयमल के सामंत निर्बल है|”

चूँकि दोनों दूत अखैराज व चांदराज जयमल के प्रमुख सामंत थे सो राव मालदेव का व्यंग्य बाण दोनों के दिलों को भेद गया और वे गुस्से से लाल पीले होते हुए उठ खड़े हुए| गुस्से से उठते हुए अखैराज ने राव मालदेव के सामने अपने गले में बंधा हुआ दुपट्टा हाथ में ले ऐसा जोर से झटका कि उसके तार-तार बिखर गये| अखैराज द्वारा अपना दम दिखाने के बाद सामंत चांदराज ने गुस्से से लाल पीले होते हुए पास ही खड़े एक घोड़े की काठी के तंग पकड़कर घोड़े को ऊपर उठा अपना बल प्रदर्शित किया| और दोनों वहां से चले आये|

मुंहता नैणसी अपनी ख्यात में लिखता है कि- दोनों के चले जाने बाद राव मालदेव ने अपने सामंतों से दुपट्टे के झटके लगवाये पर कोई सामंत झटका मार कर दुपट्टे के तार नहीं निकाल सका| इस तरह जयमल द्वारा की गई शांति की कोशिश विफल हुई, दोनों के मध्य युद्ध हुआ, मेड़तीयों ने संख्या बल में कम होने के बावजूद इतना भीषण युद्ध किया कि जोधपुर की सेना को पीछे हटना पड़ा और राव मालदेव को जान बचाने हेतु युद्ध भूमि से खिसकना पड़ा|

काश ऐसे महाबली योद्धा छोटे छोटे मामलों को लेकर आपस में ना उलझते तो आज देश का इतिहास और वर्तमान अलग ही होता !!
Jodhpur, Merta, Rathore History

लेखक-रतनसिंह जी शेखावत