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बुधवार, 28 नवंबर 2018

हल्दीघाटीका द्वितीय युद्ध......इतिहास यह भी है जो आप नही जानते होंगे।।

क्या आपने कभी पढ़ा है कि हल्दीघाटी के बाद अगले १० साल में मेवाड़ में क्या हुआ..इतिहास से जो पन्ने हटा दिए गए हैं उन्हें वापस संकलित करना ही होगा क्योंकि वही हिंदू सामर्थ्य और शौर्य के प्रतीक हैं। इतिहास में यह कभी नहीं पढ़ाया गया है की हल्दीघाटी युद्ध में जब महाराणा प्रताप ने कुंवर मानसिंह के हाथी पर जब प्रहार किया तो शाही फ़ौज पांच छह कोस दूर तक भाग गई थी और अकबर के आने की अफवाह से पुनः युद्ध में सम्मिलित हुई है। ये वाकया अबुल फज़ल की पुस्तक अकबरनामा में दर्ज है।

क्या हल्दीघाटी अलग से एक युद्ध था..या एक बड़े युद्ध की छोटी सी घटनाओं में से बस एक शुरूआती घटना..महाराणा प्रताप को इतिहासकारों ने हल्दीघाटी तक ही सीमित करके मेवाड़ के इतिहास के साथ बहुत बड़ा अन्याय किया है। वास्तविकता में हल्दीघाटी का युद्ध , महाराणा प्रताप और मुगलो के बीच हुए कई युद्धों की शुरुआत भर था। मुग़ल न तो प्रताप को पकड़ सके और न ही मेवाड़ पर अधिपत्य जमा सके।

हल्दीघाटी के बाद क्या हुआ उसकी बानगी देखिए।

हल्दीघाटी के युद्ध के बाद महाराणा के पास सिर्फ 7000 सैनिक ही बचे थे..और कुछ ही समय में मुगलों का कुम्भलगढ़, गोगुदा , उदयपुर और आसपास के ठिकानों पर अधिकार हो गया था। उस स्थिति में महाराणा ने “गुरिल्ला युद्ध” की योजना बनायी और मुगलों को कभी भी मेवाड़ में स्थिर नहीं होने दिया। महराणा के शौर्य से विचलित अकबर ने उनको दबाने के लिए 1576 में हुए हल्दीघाटी के बाद भी हर साल 1577 से 1582 के बीच एक एक लाख के सैन्यबल भेजे जो कि महाराणा को झुकाने में नाकामयाब रहे।

हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात् महाराणा प्रताप के खजांची भामाशाह और उनके भाई ताराचंद मालवा से दंड के पच्चीस लाख रुपये और दो हज़ार अशर्फिया लेकर हाज़िर हुए। इस घटना के बाद महाराणा प्रताप ने भामाशाह का बहुत सम्मान किया और दिवेर पर हमले की योजना बनाई। भामाशाह ने जितना धन महाराणा को राज्य की सेवा के लिए दिया उस से 25 हज़ार सैनिकों को 12 साल तक रसद दी जा सकती थी। बस फिर क्या था..महाराणा ने फिर से अपनी सेना संगठित करनी शुरू की और कुछ ही समय में 40000 लडाकों की एक शक्तिशाली सेना तैयार हो गयी।

उसके बाद शुरू हुआ हल्दीघाटी युद्ध का दूसरा भाग जिसको इतिहास से एक षड्यंत्र के तहत या तो हटा दिया गया है या एकदम दरकिनार कर दिया गया है। इसे बैटल ऑफ़ दिवेर कहा गया गया है.

बात सन १५८२ की है, विजयदशमी का दिन था और महराणा ने अपनी नयी संगठित सेना के साथ मेवाड़ को वापस स्वतंत्र कराने का प्रण लिया। उसके बाद सेना को दो हिस्सों में विभाजित करके युद्ध का बिगुल फूंक दिया..एक टुकड़ी की कमान स्वंय महाराणा के हाथ थी दूसरी टुकड़ी का नेतृत्व उनके पुत्र अमर सिंह कर रहे थे। कर्नल टॉड ने भी अपनी किताब में हल्दीघाटी को Thermopylae of Mewar और दिवेर के युद्ध को राजस्थान का मैराथन बताया है। ये वही घटनाक्रम हैं जिनके इर्द गिर्द आप फिल्म 300 देख चुके हैं। कर्नल टॉड ने भी महाराणा और उनकी सेना के शौर्य, तेज और देश के प्रति उनके अभिमान को स्पार्टन्स के तुल्य ही बताया है जो युद्ध भूमि में अपने से 4 गुना बड़ी सेना से यूँ ही टकरा जाते थे।

दिवेर का युद्ध बड़ा भीषण था, महाराणा प्रताप की सेना ने महाराजकुमार अमर सिंह के नेतृत्व में दिवेर थाने पर हमला किया , हज़ारो की संख्या में मुग़ल, राजपूती तलवारो बरछो भालो और कटारो से बींध दिए गए। युद्ध में महाराजकुमार अमरसिंह ने सुलतान खान मुग़ल को बरछा मारा जो सुल्तान खान और उसके घोड़े को काटता हुआ निकल गया। उसी युद्ध में एक अन्य राजपूत की तलवार एक हाथी पर लगी और उसका पैर काट कर निकल गई। महाराणा प्रताप ने बहलोल खान मुगल के सर पर वार किया और तलवार से उसे घोड़े समेत काट दिया। शौर्य की ये बानगी इतिहास में कहीं देखने को नहीं मिलती हैउसके बाद यह कहावत बनी की मेवाड़ में सवार को एक ही वार में घोड़े समेत काट दिया जाता है। ये घटनाये मुगलो को भयभीत करने के लिए बहुत थी। बचे खुचे ३६००० मुग़ल सैनिकों ने महाराणा के सामने आत्म समर्पण किया। दिवेर के युद्ध ने मुगलो का मनोबल इस तरह तोड़ दिया की जिसके परिणाम स्वरुप मुगलों को मेवाड़ में बनायीं अपनी सारी 36 थानों, ठिकानों को छोड़ के भागना पड़ा, यहाँ तक की जब मुगल कुम्भलगढ़ का किला तक रातो रात खाली कर भाग गए।

दिवेर के युद्ध के बाद प्रताप ने गोगुन्दा , कुम्भलगढ़ , बस्सी, चावंड , जावर , मदारिया , मोही , मंडलगढ़ जैसे महत्त्वपूर्ण ठिकानो पर कब्ज़ा कर लिया। इसके बाद भी महाराणा और उनकी सेना ने अपना अभियान जारी रखते हुए सिर्फ चित्तौड़ को छोड़ के मेवाड़ के सारे ठिकाने/दुर्ग वापस स्वतंत्र करा लिए।

अधिकांश मेवाड़ को पुनः कब्जाने के बाद महाराणा प्रताप ने आदेश निकाला की अगर कोई एक बिस्वा जमीन भी खेती करके मुसलमानो को हासिल (टैक्स) देगा , उसका सर काट दिया जायेगा। इसके बाद मेवाड़ और आस पास के बचे खुचे शाही ठिकानो पर रसद पूरी सुरक्षा के साथ अजमेर से मगाई जाती थी।

दिवेर का युद्ध न केवल महाराणा प्रताप बल्कि मुगलो के इतिहास में भी बहुत निर्णायक रहा। मुट्ठी भर राजपूतो ने पुरे भारतीय उपमहाद्वीप पर राज करने वाले मुगलो के ह्रदय में भय भर दिया। दिवेर के युद्ध ने मेवाड़ में अकबर की विजय के सिलसिले पर न सिर्फ विराम लगा दिया बल्कि मुगलो में ऐसे भय का संचार कर दिया की अकबर के समय में मेवाड़ पर बड़े आक्रमण लगभग बंद हो गए।

इस घटना से क्रोधित अकबर ने हर साल लाखों सैनिकों के सैन्य बल अलग अलग सेनापतियों के नेतृत्व में मेवाड़ भेजने जारी रखे लेकिन उसे कोई सफलता नहीं मिली। अकबर खुद 6 महीने मेवाड़ पर चढ़ाई करने के मकसद से मेवाड़ के आस पास डेरा डाले रहा लेकिन ये महराणा द्वारा बहलोल खान को उसके घोड़े समेत आधा चीर देने के ही डर था कि वो सीधे तौर पे कभी मेवाड़ पे चढ़ाई करने नहीं आया।

ये इतिहास के वो पन्ने हैं जिनको दरबारी इतिहासकारों ने जानबूझ कर पाठ्यक्रम से गायब कर दिया है। जिन्हें अब वापस करने का प्रयास किया जा रहा है।

रविवार, 26 नवंबर 2017

जालौर के शासक राव वीरमदेव सोनगरा

राव वीरमदेव सोनगरा एक ऐसा बहादुर वीर था जिसकी वीरता से मुग्ध होकर दिल्ली सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने अपनी पुत्री के विवाह का प्रस्ताव वीरमदेव से किया था पर वीर क्षत्रिय ने यह कहकर दिल्ली सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

भोजन करने बैठ रहे थे इतने में ही एक भिखारी आ गया और भोजन माँगने लगा राजा ने बचा हुआ भोजन उस भिखारी को खिलाकर उसकी भूख मिटाई। अब राजा के पास केवल पीने को पानी बचा हुआ था। राजा अपनी प्यास बुझाने हेतु पानी पीने जा रहा था तभी एक चाण्डाल। वहाँ आ गया और कहने लगा कि प्यास के मारे उसके प्राण निकल रहे हैं थोडा पानी है तो पिला दो। राजा ने सहर्ष उस चाण्डाल को वह जल पिला दिया। राजा रन्तिदेव इसके पश्चात् भूख प्यास के मारे मूच्छिंत होकर गिर पड़े। उसी समय वहाँ भगवान ब्रह्म, विष्णु और महेश व धर्मराज प्रकट हो गये और बोले राजा हम आपकी अतिथि सेवा से बहुत प्रसन्न हैं और उसी के फलस्वरूप यहां प्रकट हुए हैं। धन्य है राजा रन्तिदेव और धन्य है उनकी अतिथि सेवा।

मामो लाजे भाटिया कुल लाजै चहुआण ।

जो हूँ परण्यू तूरकडी तो उलटी उगे भाण ।

राव वीरमदेव जालौर के इतिहास प्रसिद्ध शासक कान्हड देव का पुत्र था। अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली सम्राट बनते ही दूसरा सिकन्दर बनना चाहता था वह सम्पूर्ण भारत में अपनी विजय पताका फहराना चाहता था। उसने विक्रम सम्वत् 1350 में राजा मानसिंह से ग्वालियर सम्वत् 1352 में यादवराम से दौलताबाद सम्वत् 1355 में करण बाघेला से गुजरात सम्वत् 1360 में ही रत्नसिंह जी से चित्तौड सम्वत् 1358 में हमीर देव चौहान से रणथम्भौर और सम्वत् 1364 में सातलदेव चौहान से सिवाना जीत लिया था। इस तरह अलाउद्दीन ने कुछ ही वर्षों में अनेक साम्राज्यों को जीतकर उन पर अपना अधिकार कर लिया था। इनको जीतने के पश्चात् सम्वत् 1362 में उसने जालौर पर आक्रमण किया इस समय जालौर में महान वीर कान्हड देव का शासन था।

अलाउद्दीन ने गुजरात को जीतने व सोमनाथ के मन्दिर को विध्वंस करने के लिए जाने के लिए जालौर साम्राज्य की सीमा से फौज के लिए रास्ता माँगा पर कान्हड देव ने इसके लिए मना कर दिया इससे अल्लाउद्दीन नाराज हो गया - अल्लाउद्दीन ने फिर अपनी सेना मेवाड के रास्ते गुजरात भेजी। गुजरात अभियान में सफलता प्राप्त कर अल्लाउद्दीन की सेना वापिस लौट रही थी तब उसने कान्हडदेव को दण्डित करना चाहा। अल्लाउद्दीन की सेना ने सराना गांव में अपना डेरा डाला उस समय सोमनाथ का शिवलिंग भी उसकी सेना के पास था।

कान्हडदेव को इसका पता चला तो उसने शाही सेना का मुकाबला कर शिवलिंग को छुडाना चाहा। कान्हडदेव ने जयन्त देवडा के सेनापतित्व में अनेक योद्धाओं के साथ जालौर की सेना तैयारी की और शाही सेना पर आक्रमण कर पवित्र शिवलिंग को प्राप्त कर लिया। शाही फौज का सरदार भाग गया - कान्हडदेव ने फिर इस शिवलिंग की इसी सराना गांव में प्राण प्रतिष्ठा कराई। इस युद्ध में कान्हडदेव के भी अनेक वीर वीरगति को प्राप्त हुए जिनमें प्रमुख भील सरदार खानडा एवं बेगडा थे व पाटन के दो राजकुमार हमीर और अर्जुन थे। वीरमदेव ने इस युद्ध में अद्भुत वीरता दिखाई और इसी वीरता की प्रशंसा सुनकर अल्लाऊद्दीन खिलजी ने वीरमदेव की प्रशसा सुनकर अल्लाऊहीन खिलजी ने वीरमदेव को दिल्ली बुलाया था जहाँ उसकी पुत्री ने वीरमदेव से विवाह करने का प्रस्ताव रखा था।

वीरमदेव के फिरोजा से विवाह के प्रस्ताव को ठुकराने से अल्लाऊद्दीन खिलजी ने जालौर को नष्ट करने का निश्चय कर लिया। उसने मलिक नाहरखान के नेतृत्व में एक बडी फौज जालौर भेजी नाहरखान ने सबसे पहले सिवाणा पर आक्रमण किया ताकि राजपूत संगठित न हो सकें। कान्हडदेव ने सिवाना के सातलदेव की सहायता की और शाही सेना को परास्त किया- इसके पश्चात् जालौर पर फिर शाही सेना की टुकडियाँ भेजी पर शाही सेना हमेशा विफल ही रही यह क्रम लगातार 5 वर्ष तर चलता रहा फिर संवत 1367 में अलाउद्दीन स्वयं एक बडी सेना लेकर जालौर पर चढ़ आया। सबसे पहले उसने सिवाना के किले को घेरा और लम्बे समय तक घेरा डाले रखा आखिर एक विश्वासघाती ने किले की गुप्त सूचनाएँ दी और जल भण्डार में गो रक्त डलवा दिया किले में पीने का पानी नहीं रहा वीरों ने तब शाका करने कर निर्णय लिया और क्षत्राणियों ने जौहर का।

गढ़ के दरवाजे खोल दिए गये राजपूतों ने शाही सेना पर भीषण आक्रमण किया। तीन पहर युद्ध के बाद सातलदेव वीरगति को प्राप्त हुए। सिवाणा दुर्ग पर अल्लाऊद्दीन का अधिकार हो गया। इसके पश्चात् उसने बाडमेर, साँचौर, भीनमाल पर अधिकार किया और जालौर की ओर प्रस्थान किया । सभी खाँपों के राजपूत अपने सैनिकों व घोडों से सुसज्जित होकर जालौर पहुँचने लगे। जालौर की पूरी प्रजा अपने तन मन धन से सहयोग में लग गये। जयन्त देवडा व महीप देवडा के नेतृत्व में जालौर की सेना ने शाही फौज पर भीषण आक्रमण किया, शाही सेना के पैर उखड गये और वे भाग छूटे। उस दिन अमावस्या थी राजपूत सैनिकों ने अपने शस्त्र रखकर एक तालाब में स्नान करना आरम्भ कर दिया एक शाही सेनानायक ने जब देखा कि राजपूत शस्त्र रख कर स्नान कर रहे है तो उसने अपनी एक टुकडी के साथ निहत्थे राजपूतों पर आक्रमण कर दिया।

इस आक्रमण में चार हजार राजपूत अपने दोनों सेनापतियों सहित वीरगति को प्राप्त हुए। इस जघन्य काण्ड की सूचना जालौर तक पहुँचाने के लिए एक भी व्यक्ति जीवित नहीं बचा था। कमालुद्दीन के नेतृत्व में शाही सेना ने फिर जालौर के किले पर आक्रमण किया। सात दिन तक शाही सेना ने दुर्ग को घेरे रखा पर वीरमदेवजी और मालदेवजी की रण कौशलता के कारण शाही सेना के सब प्रयास विफल रहे। फिर शाही सेना के खेमे में आग लग गई और सेना हताश होकर दिल्ली लौटने लगी। वीरमदेवजी, मालदेवजी भीषण धावा कर शाही सेनानायक शमशेरखान को उसके हरम सहित पकड लिया। जब अलाऊद्दीन खिलजी को दिल्ली में यह समाचार मिला तो वह तिलमिला उठा और हर कीमत पर जालौर पर कब्जा करना चाहा।

उसने अपने योग्य सेनापति मलिक कमालुद्दीन के नेतृत्व में शस्वास्त्रों से सुसजित एक बहुत बडी सेना जालौर विजय हेतु भेजी - कान्हडदेवजी ने भाई मालदेवजी और राजकुमार वीरमदेवजी के नेतृत्व में दो सेनायें तैयार की। वीरमदेवजी की सेना ने भाद्राजून में मोर्चा लिया- युद्ध में दोनों तरफ की सेनाओं का भारी नुकसान हुआ कान्हडदेवजी ने मालदेवजी और वीरमदेवजी को मन्त्रणा हेतु जालौर बुलाया- मालदेवजी तो पुनः युद्ध के मोर्चे पर आ गये और वीरमदेवजी किले की रक्षार्थ जालौर ही ठहर गये। शाही सेना ने किले का घेरा डाल दिया और खाद्य सामग्री व शस्त्रों का आवागमन रोक दियादुर्ग के भीतर स्थिति दिनों दिन खराब हो रही थी। जल भण्डार भी समाप्त हो रहा था पर क्षेत्र के सभी लोगों से पूरा सहयोग मिल रहा था कुछ स्थिति में सुधार हुआ तब कान्हडदेव के एक सरदार विका ने दुर्ग का भेद शाही सेना को दे दिया।

शाही सेना को किले में प्रवेश का मार्ग मिल गया। शाही सेना ने पूरे जोर से आक्रमण किया राजपूतों ने डटकर मुकाबला किया पर कान्हडदेवजी के मुख्यमुख्य सरदार युद्ध में काम आये- कान्हडदेवजी को दुर्ग के बचने की उम्मीद नहीं रही । विक्रम संवत 1368 की बैशाख सुदी पंचमी को कान्हडदेवजी ने वीरमदेवजी को गही पर बैठाया । कान्हडदेवजी ने अन्तिम युद्ध की तैयारी करली उनकी चारों रानियों ने अन्य क्षत्राणियों के साथ जौहर किया। जालौर में उस दिन सभी समाज की स्त्रियों ने 1584 स्थानों पर जौहर किया। कान्हडदेवजी व उनके बचे हुए सरदारों ने स्नान किया मस्तक पर चन्दन का तिलक लगा गले में तुलसी की माला धारण कर अन्तिम युद्ध के लिए निकल पडे-- कान्हडदेवजी दोनों हाथों से तलवार चला रहे थे ,शाही सेना की तबाही करते हुए और अपनी मातृभूमि, धर्म और संस्कृति की रक्षा करते हुए वीर कान्हडदेवजी बैशाख सुदी पंचमी संवत 1368 को वीरगति को प्राप्त हुए।

कान्हडदेवजी के वीरगति प्राप्त करने पर वीरमदेवजी ने युद्ध की बागडोर संभाली। उन्होंनें भी अपने सात हजार घुडसवार साथियों को अन्तिम युद्ध के लिए आदेश दिए और मुकाबले को निकल पडे। साढ़े तीन दिन युद्ध हुआ और वीरगति को प्राप्त हुए - रानियों ने जौहर कर लिया। वीरमदेवजी ने जीते जी जालौर पर कब्जा नहीं होने दिया।

अलाऊद्दीन की बेटी फिरोजा की धाय सनावर जो इस युद्ध में साथ थी, वीरमदेव का मस्तक सुगन्धित पदार्थों में रख कर दिल्ली ले गई। वीरमदेव का मस्तक जब स्वर्ण थाल में रखकर फिरोजा के सम्मुख लाया गया तो सिर उल्टा घूम गया तब फिरोजा ने अपने पूर्वजन्म की कथा सुनाई -

तज तुरकाणी चाल हिंदुआणी हुई हमें ।

भो भोरा भरतार, शीश ने घूणा सोनोगरा ।

फिरोजा ने शोक प्रकट कर उनका अंतिम संस्कार किया और स्वयं अपनी माता की आज्ञा प्राप्त कर यमुना नदी के जल में प्रविष्ट हो कर अपने प्राण त्यागे।

जय माँ भवानी
जय क्षात्रधर्म

शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

ठाकुर साहब की अकड़ और मूंछ की मरोड़ का राज

ठाकुर साहब की अकड़, मूंछ की मरोड़ आदि के बारे में तो आपने सुना ही होगा| अक्सर गांवों में ठाकुर साहबों की आपसी हंसी मजाक में कह दिया जाता कि- ठाकुर साहब “पेट से आधे भूखे जरुर है पर अकड़ पुरी” है| दरअसल राजस्थान में आजादी से पहले राजपूत राजाओं का राज था| बड़े भाई को राज्य मिलता था और छोटे भाई को गुजारे के लिए जागीर दे दी जाती थी| और जागीरदार के छोटे भाई को गुजारे के लिए थोड़ी सी जमीन दे दी जाती थी| इस तरह छोटा भाई महल से निकलकर सीधा झोंपड़े में आ जाता था| बड़ा भाई राजा या जागीरदार टेक्स वगैरह वसूलने में अपने भाई के साथ भी वही व्यवहार करता था जो आम जनता के साथ करता था|

पर छोटे भाई से आम जनता ज्यादा फायदे में रहती थी, कारण छोटे भाई का राजा या जागीरदार कर आदि लेने के बावजूद भी भावनात्मक शोषण ज्यादा करते थे| चूँकि राजाओं व जागीरदारों के पास नियमित सेना ज्यादा बड़ी नहीं होती थी| संकट आने पर अपने कुल के छोटे भाइयों को युद्ध में आमंत्रित कर लिया जाता था वे बिना वेतन के ही युद्ध लड़ते थे हाँ शहीद होने पर उनके वारिस को सिर कटाई के बदले कुछ भूमि जरुर से दी जाती थी|

उधर राजपरिवार का वह छोटा भाई जो खास से आम हो गया को छुट्ट भाई कहा जाता है पर उसकी मानसिकता आम होने के बावजूद भी खास ही बनी रहती थी| वहीं आम जनता के बीच रहने की वजह से आम जनता भी अपनी हर समस्या उसे शासक परिवार का सदस्य समझ उसी के पास लेकर आती थी और वह आम होने के बावूजद अपनी खास वाली मानसिकता के वशीभूत आम लोगों की समस्याओं व झगडों को निपटाने के लिए उन फालतू पंचायतियों में उलझा रहता था जो उसके शासक भाइयों के काम होते थे| इस तरह वह खास से आम बना राजपूत अपने लिए कमाने के अवसर ऐसे ही जाया कर दिया करता था| उसकी आय का प्रमुख साधन कृषि भी उसकी जमीन पर किसी किसान द्वारा की जाती थी जिसमें उसके लिए सिर्फ पेट भरने लायक ही बचता था| एक तो किसान अपनी मेहनत का ले जाता दूसरा ठाकुर साहब द्वारा अपने खेत-खलिहान न सँभालने पाने के चलते किसान भी उसको सही उपज नहीं बताते थे|

इस तरह आम राजपूत परिवार का मुखिया जिसे गांवों में ठाकुर साहब कहा जाता था उनकी मूंछ की अकड़ तो वही शासकों वाली रहती पर आर्थिक दृष्टि से वे आम जनता से गरीब ही होते और फालतू की शान दिखाने के चक्कर में कर्ज में भी डूबे रहते थे| इसलिए कहा जता था- “ठाकुर साहब आधे भूखे है पर मूंछ की अकड़ पुरी है|”

गांवों में ठाकुर साहब की मूंछ में अकड़ क्यों है ? पर एक मजेदार किस्सा भी प्रचलित है –

एक बार रात के समय भगवान ने एक साधु का भेष का धारण किया और पृथ्वी पर आकर एक गांव के बाहर एक रेत के टीले पर अपना आसान लगाकर बैठ गये| सुबह होते ही सबसे पहले गांव का बनिया उठा और जब वह गांव के बाहर निकला तो देखा एक बाबा टीले पर बैठे है उसने जाकर बाबा को दंडवत प्रणाम किया| बाबा ने खुश होकर उसे कुछ मांगने को कहा| बनिए ने बाबा से लक्ष्मी मांग ली| और बाबा ने तथास्तु कह उसे आशीर्वाद दे दिया| इस तरह बनिया बाबा से धनी होने का आशीर्वाद लेकर अपने घर लौट आया|

उसके बाद एक ब्राहमण मंदिर में सुबह आरती आदि के दैनिक कार्य निपटाकर उधर गया उसने भी बाबा को देखा तो जाकर प्रणाम किया| बाबा ने उसे भी कुछ मांगने को कहा| ब्राहमण से बाबा से ज्ञान मांग लिया| और बाबा से ज्ञानी बनने का आशीर्वाद लेकर घर लौट आया|

उसके बाद एक अपने खेतों में जाते एक किसान की नजर बाबा पड़ी तो वह भी अपनी श्रद्धा व्यक्त करने बाबा के पहुंचा और बाबा को प्रणाम किया| बाबा ने उससे कहा-“कि तूं थोड़ा देर से आया है लक्ष्मी तो बनिया ले गया, ज्ञान ब्राह्मण ले गया अब मेरे पास मेहनत बची है यदि तुझे चाहिए तो बेहिचक मांग ले|”

किसान बोला- “महात्मन ! एक किसान खेती में तभी सफल होता है जब वह मेहनती हो| आप मुझे मेहनत दे दीजिए मेरे लिए तो यह धन व बुद्धि से भी बढ़िया आशीर्वाद होगा|”

बाबा ने तथास्तु कह किसान को मेहनत का आशीर्वाद दे दिया|

उस दिन ठाकुर साहब रात को किसी महफ़िल में थे सो देरी से सोये थे तो देर से ही उठे थे| उन्हें गांव के एक दलित ने सूचना दी कि – “गांव के बाहर एक बाबा आया है और आशीर्वाद दे रहा है बनिया, ब्राह्मण, किसान तो ले आये है आप गांव के स्वामी है आप भी बाबा से कुछ ले आये|”

सुनकर ठाकुर साहब मूंछ पर बल देते हुए उस दलित को साथ ले बाबा के पास पहुंचे| श्रद्धा से बाबा को प्रणाम किया|

बाबा बोले- “आपने आने में देरी कर दी ! मेरे पास जितनी काम की चीजें थी वो तो मैंने दे दी| अब आपके लायक कुछ बचा ही नहीं|”

ठाकुर साहब- “ऐसा मत कीजिये बाबा श्री ! हम रात को एक पंचायत में व उसके बाद एक महफ़िल में थे सो देरी उठे वरना हम सबसे पहले आपके पास आते| फिर भी आप हमें यूँ खाली हाथ मत लौटायें, कुछ तो दीजिए|”

बाबा- “हमारे पास अब आपके लायक अकड़ (मूंछ की मरोड़) बची है आप चाहें तो वो ले सकतें है|”

ठाकुर साहब ने यह कहते हुए कि- “ये तो उनके लिए बढ़िया रहेगी| वैसे भी हमारी मूंछ की मरोड़ तो देखने लायक होनी चाहिए|’ बाबा से अकड़ ले ली|

ठाकुर के साथ गया दलित भी कहाँ पीछे रहने वाला था उसने भी अपनी गरीबी का वास्ता देकर बाबा से अपने लिए कुछ देने का अनुरोध किया|

बाबा बोले- “अब हमारे पास देने को कुछ नहीं बचा|

यह सुनते ही ठाकुर साहब अकड़ते हुए बोले- “अबे ! बाबा इस गरीब को दे रहा है या निकालूं अपनी तलवार ?” आखिर अकड़ वाला आशीर्वाद पाने के बाद ठाकुर साहब में अकड़ का असर हो चुका था|

बाबा बोले- “अब हमारे पास सिर्फ भूख बची है चाहे तो ये दलित ले सकता है|

दलित ने बिना सोचे समझे भूख मांग ली और बाबा ने उसे तथास्तु कह भूख का आर्शिर्वाद दे दिया| पर तभी ठाकुर साहब फिर अकड़ते हए बोले- “ये अकेले भूख का क्या करेगा ? फिर आया भी तो मेरे ही साथ था सो अकेले को नहीं मिलेगी आधी भूख हम रखेंगे|”

बाबा भी समझ गये थे कि- अब अकड़ का आशीर्वाद लिया ठाकुर कुछ भी कर सकता है तो उसने अपने दलित को दिए पुराने आर्शिर्वाद में अमेंडमेंड करते हुए तुरंत तथास्तु कह दिया|

तभी से ठाकुर साहब के पास अकड़ तो पुरी है पर भूख यानी गरीबी आधी| मतलब अकड़ के चलते ठाकुर साहब गरीब होते भी किसी को गरीब नहीं दिखाई देते| सरकार को भी नहीं !
तभी तो गरीब होने के बावजूद ठाकुरों मतलब राजपूतों को किसी भी तरह के आरक्षण से दूर रखा जाता है|

लेखक- रतनसिंह जी शेखावत