रविवार, 26 नवंबर 2017

जालौर के शासक राव वीरमदेव सोनगरा

राव वीरमदेव सोनगरा एक ऐसा बहादुर वीर था जिसकी वीरता से मुग्ध होकर दिल्ली सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने अपनी पुत्री के विवाह का प्रस्ताव वीरमदेव से किया था पर वीर क्षत्रिय ने यह कहकर दिल्ली सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

भोजन करने बैठ रहे थे इतने में ही एक भिखारी आ गया और भोजन माँगने लगा राजा ने बचा हुआ भोजन उस भिखारी को खिलाकर उसकी भूख मिटाई। अब राजा के पास केवल पीने को पानी बचा हुआ था। राजा अपनी प्यास बुझाने हेतु पानी पीने जा रहा था तभी एक चाण्डाल। वहाँ आ गया और कहने लगा कि प्यास के मारे उसके प्राण निकल रहे हैं थोडा पानी है तो पिला दो। राजा ने सहर्ष उस चाण्डाल को वह जल पिला दिया। राजा रन्तिदेव इसके पश्चात् भूख प्यास के मारे मूच्छिंत होकर गिर पड़े। उसी समय वहाँ भगवान ब्रह्म, विष्णु और महेश व धर्मराज प्रकट हो गये और बोले राजा हम आपकी अतिथि सेवा से बहुत प्रसन्न हैं और उसी के फलस्वरूप यहां प्रकट हुए हैं। धन्य है राजा रन्तिदेव और धन्य है उनकी अतिथि सेवा।

मामो लाजे भाटिया कुल लाजै चहुआण ।

जो हूँ परण्यू तूरकडी तो उलटी उगे भाण ।

राव वीरमदेव जालौर के इतिहास प्रसिद्ध शासक कान्हड देव का पुत्र था। अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली सम्राट बनते ही दूसरा सिकन्दर बनना चाहता था वह सम्पूर्ण भारत में अपनी विजय पताका फहराना चाहता था। उसने विक्रम सम्वत् 1350 में राजा मानसिंह से ग्वालियर सम्वत् 1352 में यादवराम से दौलताबाद सम्वत् 1355 में करण बाघेला से गुजरात सम्वत् 1360 में ही रत्नसिंह जी से चित्तौड सम्वत् 1358 में हमीर देव चौहान से रणथम्भौर और सम्वत् 1364 में सातलदेव चौहान से सिवाना जीत लिया था। इस तरह अलाउद्दीन ने कुछ ही वर्षों में अनेक साम्राज्यों को जीतकर उन पर अपना अधिकार कर लिया था। इनको जीतने के पश्चात् सम्वत् 1362 में उसने जालौर पर आक्रमण किया इस समय जालौर में महान वीर कान्हड देव का शासन था।

अलाउद्दीन ने गुजरात को जीतने व सोमनाथ के मन्दिर को विध्वंस करने के लिए जाने के लिए जालौर साम्राज्य की सीमा से फौज के लिए रास्ता माँगा पर कान्हड देव ने इसके लिए मना कर दिया इससे अल्लाउद्दीन नाराज हो गया - अल्लाउद्दीन ने फिर अपनी सेना मेवाड के रास्ते गुजरात भेजी। गुजरात अभियान में सफलता प्राप्त कर अल्लाउद्दीन की सेना वापिस लौट रही थी तब उसने कान्हडदेव को दण्डित करना चाहा। अल्लाउद्दीन की सेना ने सराना गांव में अपना डेरा डाला उस समय सोमनाथ का शिवलिंग भी उसकी सेना के पास था।

कान्हडदेव को इसका पता चला तो उसने शाही सेना का मुकाबला कर शिवलिंग को छुडाना चाहा। कान्हडदेव ने जयन्त देवडा के सेनापतित्व में अनेक योद्धाओं के साथ जालौर की सेना तैयारी की और शाही सेना पर आक्रमण कर पवित्र शिवलिंग को प्राप्त कर लिया। शाही फौज का सरदार भाग गया - कान्हडदेव ने फिर इस शिवलिंग की इसी सराना गांव में प्राण प्रतिष्ठा कराई। इस युद्ध में कान्हडदेव के भी अनेक वीर वीरगति को प्राप्त हुए जिनमें प्रमुख भील सरदार खानडा एवं बेगडा थे व पाटन के दो राजकुमार हमीर और अर्जुन थे। वीरमदेव ने इस युद्ध में अद्भुत वीरता दिखाई और इसी वीरता की प्रशंसा सुनकर अल्लाऊद्दीन खिलजी ने वीरमदेव की प्रशसा सुनकर अल्लाऊहीन खिलजी ने वीरमदेव को दिल्ली बुलाया था जहाँ उसकी पुत्री ने वीरमदेव से विवाह करने का प्रस्ताव रखा था।

वीरमदेव के फिरोजा से विवाह के प्रस्ताव को ठुकराने से अल्लाऊद्दीन खिलजी ने जालौर को नष्ट करने का निश्चय कर लिया। उसने मलिक नाहरखान के नेतृत्व में एक बडी फौज जालौर भेजी नाहरखान ने सबसे पहले सिवाणा पर आक्रमण किया ताकि राजपूत संगठित न हो सकें। कान्हडदेव ने सिवाना के सातलदेव की सहायता की और शाही सेना को परास्त किया- इसके पश्चात् जालौर पर फिर शाही सेना की टुकडियाँ भेजी पर शाही सेना हमेशा विफल ही रही यह क्रम लगातार 5 वर्ष तर चलता रहा फिर संवत 1367 में अलाउद्दीन स्वयं एक बडी सेना लेकर जालौर पर चढ़ आया। सबसे पहले उसने सिवाना के किले को घेरा और लम्बे समय तक घेरा डाले रखा आखिर एक विश्वासघाती ने किले की गुप्त सूचनाएँ दी और जल भण्डार में गो रक्त डलवा दिया किले में पीने का पानी नहीं रहा वीरों ने तब शाका करने कर निर्णय लिया और क्षत्राणियों ने जौहर का।

गढ़ के दरवाजे खोल दिए गये राजपूतों ने शाही सेना पर भीषण आक्रमण किया। तीन पहर युद्ध के बाद सातलदेव वीरगति को प्राप्त हुए। सिवाणा दुर्ग पर अल्लाऊद्दीन का अधिकार हो गया। इसके पश्चात् उसने बाडमेर, साँचौर, भीनमाल पर अधिकार किया और जालौर की ओर प्रस्थान किया । सभी खाँपों के राजपूत अपने सैनिकों व घोडों से सुसज्जित होकर जालौर पहुँचने लगे। जालौर की पूरी प्रजा अपने तन मन धन से सहयोग में लग गये। जयन्त देवडा व महीप देवडा के नेतृत्व में जालौर की सेना ने शाही फौज पर भीषण आक्रमण किया, शाही सेना के पैर उखड गये और वे भाग छूटे। उस दिन अमावस्या थी राजपूत सैनिकों ने अपने शस्त्र रखकर एक तालाब में स्नान करना आरम्भ कर दिया एक शाही सेनानायक ने जब देखा कि राजपूत शस्त्र रख कर स्नान कर रहे है तो उसने अपनी एक टुकडी के साथ निहत्थे राजपूतों पर आक्रमण कर दिया।

इस आक्रमण में चार हजार राजपूत अपने दोनों सेनापतियों सहित वीरगति को प्राप्त हुए। इस जघन्य काण्ड की सूचना जालौर तक पहुँचाने के लिए एक भी व्यक्ति जीवित नहीं बचा था। कमालुद्दीन के नेतृत्व में शाही सेना ने फिर जालौर के किले पर आक्रमण किया। सात दिन तक शाही सेना ने दुर्ग को घेरे रखा पर वीरमदेवजी और मालदेवजी की रण कौशलता के कारण शाही सेना के सब प्रयास विफल रहे। फिर शाही सेना के खेमे में आग लग गई और सेना हताश होकर दिल्ली लौटने लगी। वीरमदेवजी, मालदेवजी भीषण धावा कर शाही सेनानायक शमशेरखान को उसके हरम सहित पकड लिया। जब अलाऊद्दीन खिलजी को दिल्ली में यह समाचार मिला तो वह तिलमिला उठा और हर कीमत पर जालौर पर कब्जा करना चाहा।

उसने अपने योग्य सेनापति मलिक कमालुद्दीन के नेतृत्व में शस्वास्त्रों से सुसजित एक बहुत बडी सेना जालौर विजय हेतु भेजी - कान्हडदेवजी ने भाई मालदेवजी और राजकुमार वीरमदेवजी के नेतृत्व में दो सेनायें तैयार की। वीरमदेवजी की सेना ने भाद्राजून में मोर्चा लिया- युद्ध में दोनों तरफ की सेनाओं का भारी नुकसान हुआ कान्हडदेवजी ने मालदेवजी और वीरमदेवजी को मन्त्रणा हेतु जालौर बुलाया- मालदेवजी तो पुनः युद्ध के मोर्चे पर आ गये और वीरमदेवजी किले की रक्षार्थ जालौर ही ठहर गये। शाही सेना ने किले का घेरा डाल दिया और खाद्य सामग्री व शस्त्रों का आवागमन रोक दियादुर्ग के भीतर स्थिति दिनों दिन खराब हो रही थी। जल भण्डार भी समाप्त हो रहा था पर क्षेत्र के सभी लोगों से पूरा सहयोग मिल रहा था कुछ स्थिति में सुधार हुआ तब कान्हडदेव के एक सरदार विका ने दुर्ग का भेद शाही सेना को दे दिया।

शाही सेना को किले में प्रवेश का मार्ग मिल गया। शाही सेना ने पूरे जोर से आक्रमण किया राजपूतों ने डटकर मुकाबला किया पर कान्हडदेवजी के मुख्यमुख्य सरदार युद्ध में काम आये- कान्हडदेवजी को दुर्ग के बचने की उम्मीद नहीं रही । विक्रम संवत 1368 की बैशाख सुदी पंचमी को कान्हडदेवजी ने वीरमदेवजी को गही पर बैठाया । कान्हडदेवजी ने अन्तिम युद्ध की तैयारी करली उनकी चारों रानियों ने अन्य क्षत्राणियों के साथ जौहर किया। जालौर में उस दिन सभी समाज की स्त्रियों ने 1584 स्थानों पर जौहर किया। कान्हडदेवजी व उनके बचे हुए सरदारों ने स्नान किया मस्तक पर चन्दन का तिलक लगा गले में तुलसी की माला धारण कर अन्तिम युद्ध के लिए निकल पडे-- कान्हडदेवजी दोनों हाथों से तलवार चला रहे थे ,शाही सेना की तबाही करते हुए और अपनी मातृभूमि, धर्म और संस्कृति की रक्षा करते हुए वीर कान्हडदेवजी बैशाख सुदी पंचमी संवत 1368 को वीरगति को प्राप्त हुए।

कान्हडदेवजी के वीरगति प्राप्त करने पर वीरमदेवजी ने युद्ध की बागडोर संभाली। उन्होंनें भी अपने सात हजार घुडसवार साथियों को अन्तिम युद्ध के लिए आदेश दिए और मुकाबले को निकल पडे। साढ़े तीन दिन युद्ध हुआ और वीरगति को प्राप्त हुए - रानियों ने जौहर कर लिया। वीरमदेवजी ने जीते जी जालौर पर कब्जा नहीं होने दिया।

अलाऊद्दीन की बेटी फिरोजा की धाय सनावर जो इस युद्ध में साथ थी, वीरमदेव का मस्तक सुगन्धित पदार्थों में रख कर दिल्ली ले गई। वीरमदेव का मस्तक जब स्वर्ण थाल में रखकर फिरोजा के सम्मुख लाया गया तो सिर उल्टा घूम गया तब फिरोजा ने अपने पूर्वजन्म की कथा सुनाई -

तज तुरकाणी चाल हिंदुआणी हुई हमें ।

भो भोरा भरतार, शीश ने घूणा सोनोगरा ।

फिरोजा ने शोक प्रकट कर उनका अंतिम संस्कार किया और स्वयं अपनी माता की आज्ञा प्राप्त कर यमुना नदी के जल में प्रविष्ट हो कर अपने प्राण त्यागे।

जय माँ भवानी
जय क्षात्रधर्म

बुधवार, 15 नवंबर 2017

गोरा और बादल का इतिहास

गोरा और बादल चित्तौड़गढ़ मेवाड़ के महान योद्धाओं में से एक थे, जो चित्तौड़गढ़ मेवाड़ के रावल रतन सिंह के बचाव के लिए बहादुरी से लड़े थे | गोरा ओर बदल दोनों चाचा भतीजे जालोर के चौहान वंश से सम्बन्ध रखते थे | छल द्वारा 1298 में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़गढ़ मेवाड़ के शाशक रावल रतन सिंह को कैदी बना दिया था | फिरौती में खिलजी ने, चित्तौड़गढ़ मेवाड़ के रावल रतन सिंह कि पत्नी रानी पद्मिनी कि माँग कि थी | यह सब होने के बाद रानी पद्मिनी ने एक युद्ध परिषद आयोजित की जिसमे रावल रतन सिंह को बचाने कि योजना बनाई गयी | रावल रतन सिंह को बचाने का जिम्मा गोरा ओर बादल को दिया गया | गोरा ओर उसके भतीजे बादल को अलाउद्दीन खिलजी के पास दूत बना कर भेजा गया ओर संदेश पहुँचाया गया कि रानी पद्मिनी को खिलजी को सोप दिया जयेगा अगर खिलजी अपनी सेनाये चित्तौड़गढ़ मेवाड़ से हटा दे, पर एक शर्त यह है कि जब रानी पद्मिनी को खिलजी को सोपा जयेगा तब रानी पद्मिनी कि दसिया ओर सेवक 50 पालकियो में साथ होगी | जब रानी पद्मिनी को खिलजी को सोपा जा रहा था तो हर एक पालकि में 2 अच्छे अच्छे राजपूत योधा को बिठाया गया | जब रानी पद्मिनी कि पालकि जिसमे गोरा ख़ुद भी बैठा था, जब रत्न सिंह के टेंट के पास पहुँची तो गोरा ने रतन सिंह के टेंट में जाके रत्न सिंह को घोड़े पे बैठने को बोला ओर कहा कि आप किले(चित्तौड़गढ़) में वापस चले ज्यों | उसके बाद गोरा ने सभी राजपूत योद्धाओं को उनकी पालकी से बाहर आने को कहा ओर बोला कि मुस्लिम सैनिकों पर हमला करो | गोरा खिलजी के तम्बू तक पहुँचा और सुल्तान को मारने ही वाला था पर सुल्तान अपनी उपपत्नी के पीछे छिप गया | गोरा एक राजपूत था ओर राजपूत मासूम महिलाओं को नहीं मारते, इसलिए गोरा ने उस महिला पे हाथ नही उठाया | ओर सुल्तान के सैनिकों से युध करते हुए गोरा ओर बदल वीर गति को प्राप्त हुए | चित्तौड़गढ़ किले में रानी पद्मिनी के महल के दक्षिण में दो गुंबद के आकार घरों का निर्माण किया गया है जिन्हें गोरा बादल के महल के नाम से जाना जाता है 

शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

ठाकुर साहब की अकड़ और मूंछ की मरोड़ का राज

ठाकुर साहब की अकड़, मूंछ की मरोड़ आदि के बारे में तो आपने सुना ही होगा| अक्सर गांवों में ठाकुर साहबों की आपसी हंसी मजाक में कह दिया जाता कि- ठाकुर साहब “पेट से आधे भूखे जरुर है पर अकड़ पुरी” है| दरअसल राजस्थान में आजादी से पहले राजपूत राजाओं का राज था| बड़े भाई को राज्य मिलता था और छोटे भाई को गुजारे के लिए जागीर दे दी जाती थी| और जागीरदार के छोटे भाई को गुजारे के लिए थोड़ी सी जमीन दे दी जाती थी| इस तरह छोटा भाई महल से निकलकर सीधा झोंपड़े में आ जाता था| बड़ा भाई राजा या जागीरदार टेक्स वगैरह वसूलने में अपने भाई के साथ भी वही व्यवहार करता था जो आम जनता के साथ करता था|

पर छोटे भाई से आम जनता ज्यादा फायदे में रहती थी, कारण छोटे भाई का राजा या जागीरदार कर आदि लेने के बावजूद भी भावनात्मक शोषण ज्यादा करते थे| चूँकि राजाओं व जागीरदारों के पास नियमित सेना ज्यादा बड़ी नहीं होती थी| संकट आने पर अपने कुल के छोटे भाइयों को युद्ध में आमंत्रित कर लिया जाता था वे बिना वेतन के ही युद्ध लड़ते थे हाँ शहीद होने पर उनके वारिस को सिर कटाई के बदले कुछ भूमि जरुर से दी जाती थी|

उधर राजपरिवार का वह छोटा भाई जो खास से आम हो गया को छुट्ट भाई कहा जाता है पर उसकी मानसिकता आम होने के बावजूद भी खास ही बनी रहती थी| वहीं आम जनता के बीच रहने की वजह से आम जनता भी अपनी हर समस्या उसे शासक परिवार का सदस्य समझ उसी के पास लेकर आती थी और वह आम होने के बावूजद अपनी खास वाली मानसिकता के वशीभूत आम लोगों की समस्याओं व झगडों को निपटाने के लिए उन फालतू पंचायतियों में उलझा रहता था जो उसके शासक भाइयों के काम होते थे| इस तरह वह खास से आम बना राजपूत अपने लिए कमाने के अवसर ऐसे ही जाया कर दिया करता था| उसकी आय का प्रमुख साधन कृषि भी उसकी जमीन पर किसी किसान द्वारा की जाती थी जिसमें उसके लिए सिर्फ पेट भरने लायक ही बचता था| एक तो किसान अपनी मेहनत का ले जाता दूसरा ठाकुर साहब द्वारा अपने खेत-खलिहान न सँभालने पाने के चलते किसान भी उसको सही उपज नहीं बताते थे|

इस तरह आम राजपूत परिवार का मुखिया जिसे गांवों में ठाकुर साहब कहा जाता था उनकी मूंछ की अकड़ तो वही शासकों वाली रहती पर आर्थिक दृष्टि से वे आम जनता से गरीब ही होते और फालतू की शान दिखाने के चक्कर में कर्ज में भी डूबे रहते थे| इसलिए कहा जता था- “ठाकुर साहब आधे भूखे है पर मूंछ की अकड़ पुरी है|”

गांवों में ठाकुर साहब की मूंछ में अकड़ क्यों है ? पर एक मजेदार किस्सा भी प्रचलित है –

एक बार रात के समय भगवान ने एक साधु का भेष का धारण किया और पृथ्वी पर आकर एक गांव के बाहर एक रेत के टीले पर अपना आसान लगाकर बैठ गये| सुबह होते ही सबसे पहले गांव का बनिया उठा और जब वह गांव के बाहर निकला तो देखा एक बाबा टीले पर बैठे है उसने जाकर बाबा को दंडवत प्रणाम किया| बाबा ने खुश होकर उसे कुछ मांगने को कहा| बनिए ने बाबा से लक्ष्मी मांग ली| और बाबा ने तथास्तु कह उसे आशीर्वाद दे दिया| इस तरह बनिया बाबा से धनी होने का आशीर्वाद लेकर अपने घर लौट आया|

उसके बाद एक ब्राहमण मंदिर में सुबह आरती आदि के दैनिक कार्य निपटाकर उधर गया उसने भी बाबा को देखा तो जाकर प्रणाम किया| बाबा ने उसे भी कुछ मांगने को कहा| ब्राहमण से बाबा से ज्ञान मांग लिया| और बाबा से ज्ञानी बनने का आशीर्वाद लेकर घर लौट आया|

उसके बाद एक अपने खेतों में जाते एक किसान की नजर बाबा पड़ी तो वह भी अपनी श्रद्धा व्यक्त करने बाबा के पहुंचा और बाबा को प्रणाम किया| बाबा ने उससे कहा-“कि तूं थोड़ा देर से आया है लक्ष्मी तो बनिया ले गया, ज्ञान ब्राह्मण ले गया अब मेरे पास मेहनत बची है यदि तुझे चाहिए तो बेहिचक मांग ले|”

किसान बोला- “महात्मन ! एक किसान खेती में तभी सफल होता है जब वह मेहनती हो| आप मुझे मेहनत दे दीजिए मेरे लिए तो यह धन व बुद्धि से भी बढ़िया आशीर्वाद होगा|”

बाबा ने तथास्तु कह किसान को मेहनत का आशीर्वाद दे दिया|

उस दिन ठाकुर साहब रात को किसी महफ़िल में थे सो देरी से सोये थे तो देर से ही उठे थे| उन्हें गांव के एक दलित ने सूचना दी कि – “गांव के बाहर एक बाबा आया है और आशीर्वाद दे रहा है बनिया, ब्राह्मण, किसान तो ले आये है आप गांव के स्वामी है आप भी बाबा से कुछ ले आये|”

सुनकर ठाकुर साहब मूंछ पर बल देते हुए उस दलित को साथ ले बाबा के पास पहुंचे| श्रद्धा से बाबा को प्रणाम किया|

बाबा बोले- “आपने आने में देरी कर दी ! मेरे पास जितनी काम की चीजें थी वो तो मैंने दे दी| अब आपके लायक कुछ बचा ही नहीं|”

ठाकुर साहब- “ऐसा मत कीजिये बाबा श्री ! हम रात को एक पंचायत में व उसके बाद एक महफ़िल में थे सो देरी उठे वरना हम सबसे पहले आपके पास आते| फिर भी आप हमें यूँ खाली हाथ मत लौटायें, कुछ तो दीजिए|”

बाबा- “हमारे पास अब आपके लायक अकड़ (मूंछ की मरोड़) बची है आप चाहें तो वो ले सकतें है|”

ठाकुर साहब ने यह कहते हुए कि- “ये तो उनके लिए बढ़िया रहेगी| वैसे भी हमारी मूंछ की मरोड़ तो देखने लायक होनी चाहिए|’ बाबा से अकड़ ले ली|

ठाकुर के साथ गया दलित भी कहाँ पीछे रहने वाला था उसने भी अपनी गरीबी का वास्ता देकर बाबा से अपने लिए कुछ देने का अनुरोध किया|

बाबा बोले- “अब हमारे पास देने को कुछ नहीं बचा|

यह सुनते ही ठाकुर साहब अकड़ते हुए बोले- “अबे ! बाबा इस गरीब को दे रहा है या निकालूं अपनी तलवार ?” आखिर अकड़ वाला आशीर्वाद पाने के बाद ठाकुर साहब में अकड़ का असर हो चुका था|

बाबा बोले- “अब हमारे पास सिर्फ भूख बची है चाहे तो ये दलित ले सकता है|

दलित ने बिना सोचे समझे भूख मांग ली और बाबा ने उसे तथास्तु कह भूख का आर्शिर्वाद दे दिया| पर तभी ठाकुर साहब फिर अकड़ते हए बोले- “ये अकेले भूख का क्या करेगा ? फिर आया भी तो मेरे ही साथ था सो अकेले को नहीं मिलेगी आधी भूख हम रखेंगे|”

बाबा भी समझ गये थे कि- अब अकड़ का आशीर्वाद लिया ठाकुर कुछ भी कर सकता है तो उसने अपने दलित को दिए पुराने आर्शिर्वाद में अमेंडमेंड करते हुए तुरंत तथास्तु कह दिया|

तभी से ठाकुर साहब के पास अकड़ तो पुरी है पर भूख यानी गरीबी आधी| मतलब अकड़ के चलते ठाकुर साहब गरीब होते भी किसी को गरीब नहीं दिखाई देते| सरकार को भी नहीं !
तभी तो गरीब होने के बावजूद ठाकुरों मतलब राजपूतों को किसी भी तरह के आरक्षण से दूर रखा जाता है|

लेखक- रतनसिंह जी शेखावत

बुधवार, 1 नवंबर 2017

एक_ने_झटके_से_दुपट्टे_के_तार_निकाले_तो_दुसरे_ने_घोड़े_को_हाथ_से_उठा_लिया

राव विरमदेव के स्वर्गवास होने के बाद राव जयमल मेड़ता के शासक बने, चूँकि जयमल को बचपन से ही जोधपुर के शक्तिशाली शासक राव मालदेव के मन में मेड़ता के खिलाफ घृणा का पता था, साथ ही जयमल राव मालदेव की अपने से दस गुना बड़ी सेना का कई बार मुकाबला कर चुका थे| अत: उन्हें विश्वास था कि मालदेव मौका मिलते ही मेड़ता पर आक्रमण अवश्य करेंगे| सो उन्होंने शुरू से सैनिक तैयारियां जारी रखी और अपने सीमित संसधानों के अनुरूप सेना तैयार की| हालाँकि जोधपुर राज्य के सामने उसके पास संसाधन क्षीण थे|

आखिर संवत १६१० में राव मालदेव विशाल सेना के साथ मेड़ता पर आक्रमण हेतु अग्रसर हुए| जयमल चूँकि जोधपुर की विशाल सेनाएं अपने पिता के राज्यकाल में देख चुके थे, उन्हें पता था कि जोधपुर के आगे उनकी शक्ति कुछ भी नहीं| सो उन्होंने बीकानेर से सहायता लेने के साथ ही मालदेव से संधि कर युद्ध रोकने की कोशिश की, चूँकि सेनाओं में दोनों और के सैनिक व सामंत सभी आपसी निकट संबंधी ही थे सो जयमल नहीं चाहते थे कि निकट संबंधी या भाई आपस में लड़े मरे, सो उन्होंने मालदेव के एक सेनापति पृथ्वीराज जैतावत को संदेश भेजकर संधि की बात की व भाईचारा कायम रखते हुए युद्ध बंद करने हेतु अपने दो सामंत अखैराज भादा व चांदराज जोधावत को अपना दूत बना मालदेव के शिविर में भेजा|

जयमल के दूतों ने मालदेव से युद्ध रोकने की विनती करते हुए कहा जयमल का संदेश दिया कि– “हम आप ही के छोटे भाई है और आपकी सेवा चाकरी करने के लिए तैयार है सो हमसे युद्ध नहीं करे|” राव मालदेव ने बड़े अहम् भाव से दूतों से कहा – “अब तो हम जयमल से मेड़ता छिनेंगे|” दूत अखैराज ने कहा- “मेड़ता कौन लेता है और कौन देता है, जिसने आपको जोधपुर दिया उसी ने हमको मेड़ता दिया|”

इस पर राव मालदेव ने व्यंग्य से कहा – “जयमल के सामंत निर्बल है|”

चूँकि दोनों दूत अखैराज व चांदराज जयमल के प्रमुख सामंत थे सो राव मालदेव का व्यंग्य बाण दोनों के दिलों को भेद गया और वे गुस्से से लाल पीले होते हुए उठ खड़े हुए| गुस्से से उठते हुए अखैराज ने राव मालदेव के सामने अपने गले में बंधा हुआ दुपट्टा हाथ में ले ऐसा जोर से झटका कि उसके तार-तार बिखर गये| अखैराज द्वारा अपना दम दिखाने के बाद सामंत चांदराज ने गुस्से से लाल पीले होते हुए पास ही खड़े एक घोड़े की काठी के तंग पकड़कर घोड़े को ऊपर उठा अपना बल प्रदर्शित किया| और दोनों वहां से चले आये|

मुंहता नैणसी अपनी ख्यात में लिखता है कि- दोनों के चले जाने बाद राव मालदेव ने अपने सामंतों से दुपट्टे के झटके लगवाये पर कोई सामंत झटका मार कर दुपट्टे के तार नहीं निकाल सका| इस तरह जयमल द्वारा की गई शांति की कोशिश विफल हुई, दोनों के मध्य युद्ध हुआ, मेड़तीयों ने संख्या बल में कम होने के बावजूद इतना भीषण युद्ध किया कि जोधपुर की सेना को पीछे हटना पड़ा और राव मालदेव को जान बचाने हेतु युद्ध भूमि से खिसकना पड़ा|

काश ऐसे महाबली योद्धा छोटे छोटे मामलों को लेकर आपस में ना उलझते तो आज देश का इतिहास और वर्तमान अलग ही होता !!
Jodhpur, Merta, Rathore History

लेखक-रतनसिंह जी शेखावत

रविवार, 29 अक्टूबर 2017

राजपूत और चारण

भारतीय इतिहास में चारणों को देवीपुत्र/कविवर/कविराज के तौर पर जाना जाता है, जो कि अपने शब्दों सें बड़े-बड़े राजाओं को जोश से भर देते थे, और अपने शब्दों के वार से घमंडी राजाओं का घमंड भी उतार देते थे।
राजस्थान का एक बड़ा समाज है "राजपूत-समाज", उनकी भी कुलदेवी माँ करणी जी है और चारणों की भी कुलदेवी माँ करणी जी ही है, और ये राजपूत समाज राजस्थान पर राज करने वाले समाज के तौर पर जाना जाता है.....
इसिलए पहले राजस्थान का नाम "राजपुताना" ही था, क्योंकि शुरुआत से ही इस पर राजपूत शासको का राज रहा है...
तो तब से ही राजपूतो और चारणों का आपसी जुगलबंदी शुरू हो गई थी, जो आज भी जारी है...
आज भी जब कहीं पुरुषों में राजपूत और चारण एक साथ खाना खाने बैठते है, तो राजपूत तब तक निवाला नही तोड़ते जब तक चारण ना तोड़े...
और महिलाओं में बुजुर्गो के पाँव छूने का रिवाज हमारे यहाँ आज भी है, परंतु कभी भी कोई राजपूत समाज की महिला (भले ही वो कितनी भी वृद्ध हो ) किसी चारण महिला को अपने पाँव नही छूने देती.. बल्कि खुद चारण महिलाओ के पाँव छूती है, क्योंकि राजपूत महिलाए, चारण महिलाओ का आदर/सम्मान करती है, और देवितुल्य मानती है. चारणों को राजपूत का गुरु भी माना गया है...तो चारण-राजपूत का हमारे यहाँ ऐसा रिश्ता है इसीलिए चारण-राजपूत एक ना हो कर भी एक ही माने जाते है। चारण समाज हमारे लिए सदा पूज्यनीय रहा है और रहेगा ।।

रजवट रै चारण गुरु, चारण मरण सिखाय।
बलिहारी गुरु चारणां, खिण तप सुरग मिलाय।।

जय माँ करणी जी...
जय श्री राम...
जय क्षात्रधर्म...

लेखक- लक्ष्मणसिंह चौराऊ