सोमवार, 1 जनवरी 2024

#वीर_गाथाएँ

#वीर_गाथाएँ

कौन करे याद कुर्बानी.... स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम योद्घा श्याम सिंह चौहटन

स्वतंत्रता समर के योद्धा : श्याम सिंह राठौड़ चौहटन 

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जूझने वाले राजस्थानी योद्धाओं में ठाकुर श्याम सिंह राठौड़ का बलिदान विस्मृत नहीं किया जा सकता | 1857 के देशव्यापी अंग्रेज सत्ता विरोधी सशस्त्र संघर्ष के पूर्व राजस्थान में ऐसे अनेक स्वातन्त्र्यचेता सपूत हो चुके है जिन्होंने ब्रिटिश सत्ता के वरदहस्त को विषैला वरदान समझा था | शेखावाटी , बिदावाटी, हाडौती , मेड़ता पट्टी ,खारी पट्टी , मेवाड़ और मालानी के अनेक शासक अंग्रेजों की कैतवत नीति से परिचित थे | मालानी प्रदेश के चौहटन स्थान का ठाकुर श्याम सिंह राठौड़ों की बाहड़मेरा खांप का व्यक्ति था | बाहड़मेर (बाड़मेर) का प्रान्त जो प्रसिद्ध शासक रावल मल्लिनाथ के नाम से मालानी कहलाता है अपनी स्वतंत्रता ,स्वाभिमान और वीर छक के लिए विख्यात रहा है | मल्लिनाथ की राजधानी महेवा नगर थी | वह राव सलखा का पुत्र था |
मल्लिनाथ के अनुज जैत्रमल्ल और विरमदेव थे | राव विरमदेव के पुत्र राव चूंडा की संतति में जोधपुर ,बीकानेर,किशनगढ़ ,रतलाम आदि के राजा थे और मल्लिनाथ के महेचा अथवा बाहड़मेरा राठौड़ है | इस प्रकार जोधपुर ,बीकानेर,नारेशादी तथा अन्य राठौड़ ठिकानेदारों में महेचा टिकाई (बड़े)है और राजस्थान में अंग्रेजों के प्रभाव के बाद तक भी वे अपनी स्वतंत्रता का उपभोग करते रहे है | जोधपुर के महाराजा मान सिंह के समय उनके नाथ सम्प्रदाय गुरु भीमनाथ ,लाडूनाथ , महाराज कुमार छत्र सिंह आदि की उत्पथगामिता के कारण मारवाड़ में राजनैतिक धडाबंदी बंद गई थी | इस अवसर का फायदा उठाकर अंग्रेजों ने महाराजा को संधि कर अंग्रेजों का शासन मनवाने के लिए बाध्य किया और वि.स.१८९१ में कर्नल सदरलैंड ने अपने प्रतिनिधि स्वरूप मि.लाडलो को जोधपुर में रख दिया |
मि.लडलो ने नाथों के उपद्रव और महाराजा तथा उनके सामंतो के विग्रह विरोध को शांत तथा दमित कर अंग्रेज सत्ता का प्रभाव जमाने का प्रयत्न किया | बाड़मेर में महेचा राठौड़ सदा से ही अपनी स्वतंत्र सत्ता का उपभोग करते रहे थे वे कभी जोधपुर राज्य से दब जाते और फिर अवसर आने पर स्वतंत्र हो जाते | अंग्रेजों का मारवाड़ राज्य पर प्रभाव बढ़ता देखकर स्वतंत्रता प्रेमी मालानी के योद्धा उत्तेजित हो उठे और अंग्रेजों के विरुद्ध दावे मारने लगे | अंग्रेजों ने संवत १८९१ वि.में मालानी पर सैनिक चढाई बोल दी | बाहड़मेरों ने भी ठाकुर श्याम सिंह चौहटन के नेतृत्व में युद्ध की रणभेरी बजाई | अपनी ढालें , भाले , सांगे और तलवारों की धारें तीक्षण की | कवि कहता है - 
गढ़ भरुजां तिलंग रचै जंग गोरा, चुरै गिर गढ़ तोप चलाय |
माहव किण पातक सूं मेली , बाड़मेर पर इसी बलाय ||

दुर्गों की बुर्जों पर तोपों के प्रहार हो रहे है और पार्वत्य दुर्ग की दीवारें टूट -टूट कर गिर रही है | यह किस पाप का फल जो बाड़मेर पर ऐसी आपत्ति आई |
बाड़मेर के दुर्ग पर आधिपत्य कर ब्रिटिश सेना ने चौहटन पर प्रयाण किया | ब्रिटिश अश्वारोही आक-फोग सभी के क्षूपों को रोंद्ती , पृथ्वी को मच्कोले खवाती , कुप वापिकाओं के जल स्रोतों को सुखाती , चौहटन पहुंची | ठाकुर श्याम सिंह रण मद की छक में छका हुआ अपने शत्रुओं को दक्षिण दिशा के दिग्पाल की पुरी का पाहुना बनाने के समान उद्दत था | अंग्रेज सेनानायक ने श्याम सिंह से युद्ध न कर आत्मसमर्पण करने के लिए सन्देश भेजा , पर श्याम सिंह तो देश के शत्रु ,राष्ट्रीयता के अपहरणकर्ता और स्वतंत्रता के विरोधी अंग्रेजों से रणभूमि में दो दो हाथ करने के लिए अवसर ही खोजता फिर रहा था | राष्ट्रीय कवि बाँकीदास आशिया के काव्य में व्यक्त अंग्रेज सेनानायक और ठाकुर श्याम सिंह का शोर्यपूर्ण प्रश्न उत्तर सुनिए -
अंग्रेज बोलियौ तेज उफ़नै,सिर नम झोड़ में रौपै सिरदार |
हिन्दू आवध छोड़ हमै साहब नख ,सुणियो विण कहे बिना विचार ||
धरा न झलै लड़वां धारवां , स्याम कहै किम नांखुं सांग |
पूंजूँ खाग घनै परमेसर , उठै जाग खाग मझ आग ||
कळहण फाटा बाक कायरां , वीर हाक बज चहुँ वलाँ ||
छळ दळ कराबीण कै छूटी, कै पिस्तोला पथर कलाँ ||

अंग्रेज सेनापति ने आक्रोश में उत्तेजित होकर कहा- अरे सरदार ! युद्ध मत ठान | आत्मसमर्पण कर अपने जीवन की रक्षा कर | हे हिन्दू योद्धा ,अपने आयुध साहब के सामने रख दे | तू सुन तो सही ,आगे पीछे भले बुरे , हानि -लाभ का बिना विचार किये व्यर्थ मरने के लिए हठ ठान रहा है |
वीरवर श्याम सिंह ने मृत्यु की उपेक्षा करते हुए कहा - यदि मरण भय से आत्मसमपर्ण करूँ तो यह क्षमाशील पृथ्वी भार झेलना त्याग देगी ,तब फिर मै शस्त्र सुपुर्द कैसे करूँ | तलवार और परमेश्वर का मैं समान रूप से आराधक हूँ | अत: शस्त्र त्याग जीवन की भिक्षा याचना के लिए तो मैंने शस्त्र उठाये ही नहीं | बैरियों के सिरछेदन के लिए मैं अपने हाथ में तलवार रखता हूँ |
कायरों के मुंह फटे से रह गए | चारों और से मारो काटो की आवाजें गूंजने लगी | कराबीने पत्थर कलाये और पिस्तोलों से गोले गोलियां गूंजने लगी | कायरों के कलेजे कांप गए | वीर नाद से धरा आकाश में कोहराम मच गया | क्षण मात्र में देखते देखते ही नर मुंडों के पुंज (ढेर) लग गए | मरुस्थली में रक्त की सरिता उमड़ने लगी |
मालानी प्रदेश को कीर्ति रूपी जल से सींचने वाला वीर श्याम सिंह अपने देश की स्वंत्रता के लिए जूझने लगा | अपने प्रतापी पूर्वज रावल मल्लिनाथ ,रावल जगमाल ,रावल हापा की कीर्तिगाथा को स्मरण कर अंग्रेज सेना पर टूट पड़ा | उसके पदाति साथियों ने जय मल्लिनाथ ,जय दुर्गे के विजय घोषों से शत्रु सेना को विचलित कर दिया | इस पर कवि बाँकीदास ने कहा - 
हठवादी नाहर होफरिया , सादी जिसडा साथ सिपाह |
मेर वही मंड बाहड़मेरे , गोरां सूं रचियौ गजशाह ||
केवी मार उजलौ किधौ ,अनड़ चौहटण आड़े आंक |
घण रीझवण पलटणदार घेरिया , सेरावत न मानी सांक ||
सोमा जिम तलवार संमाहे , जोस घनै बाहै कर जंग |
मरण हरख रजवट मजबुतां , राजपूतां त्यां दीजै रंग ||
अणियां भंमर रोप पग उंडा , रचियो समहर अमर हुओ |
आंट निभाह उतन आपानै , मालाणे जळ चाढ़ मुओ ||

उस हठीले वीर श्यामसिंह ने सादी जैसे साहसी साथियों को अपने संग लेकर सिंह की तरह दहाड़ते हुए आक्रमण किया और सुमेर गिरि शिखिर की भांति अडिग बाहड़मेरो ने गोरों से भयानक युद्ध छेड़ा | उस वीर श्रेष्ट शेरसिंह तनय श्यामसिंह ने अंग्रेजों की तोपों , तमंचो से सनद्ध सेना का तनिक भी भय नहीं माना | शत्रुओं का संहार कर उसने बाहड़मेरा राठौड़ खांप को कीर्तित किया तथा चौहटन वालों की वीरता का प्रतीक बन गया | अंग्रेजों की पलटनो को चारों तरफ से घेर कर अपने प्रतापी पूर्वज सोमा की भांति तलवार उठाकर अत्यंत ही उत्साह के साथ भयानक जंग लड़ा | मरणो उत्साही ऐसे क्षत्रिय सपूतों को रंग है जो मातृभूमि की गौरव रक्षा के लिए अपने प्राणों को तृण तुल्य मानते है |
सेना रूपी दुल्हिन का दूल्हा वह श्यामसिंह रणाराण में दृढ़ता पूर्वक अपने पैरों को स्थिर कर युद्ध करने लगा और अंत में अपने प्यारे वतन की आजादी की टेक का निर्वहन करता हुआ रण शय्या पर सो गया | उस वीर ने मालानी प्रदेश को यश प्रदान कर अमरों की नगरी के पथ का अनुगमन किया |
ठाकुर श्याम सिंह ने अपने पूर्वजों की स्वातंत्र्य भावना और आत्मसम्मान ,आत्म त्याग का पाठ पढ़ा था | इसलिए उस वीर ने जीते जी मालानी प्रदेश पर अंग्रेज सत्ता का आधिपत्य नहीं होने दिया | मातृभूमि के लिए अपने प्राणों का बलिदान का देने वाले ऐसे ही सपूतों के बल पर ही देश स्वतंत्र रहते है और उनका त्याग प्रेरणा देता हुआ भावी पीढ़ियों के राष्ट्र प्रेम की भावना जाग्रत रखता है |
" धरती म्हारी हूँ धणी , असुर फिरै किम आण " के आदर्शों का पालन करने वालों के जीवित रहते मातृभूमि को कैसे कोई शत्रु दलित कर सकता है | ठाकुर श्यामसिंह में आधुनिक साधनों-शस्त्रों से सज्जित बहु संख्यक अंग्रेज सेना का सामुख्य कर मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए अपना जीवन न्योछावर किया और मालानी प्रदेश की स्वतंत्रता की रक्षा का पुनीत गौरवशाली पाठ पढ़ा कर सदा के लिए मातृभूमि की गोद में सो गया | कवि ने इस पर मरसिया कहा है -
स्यामा जिसा सपूत , मातभोम नही मरद |
रजधारी रजपूत , विधना धडजै तूं वलै ||
`
ऐसे देश प्रेमी शूरवीरों के शोणित से सिंचित यह धरा वन्दनीय कहलाती है और उर्वरा बनती है | हरिराम आचार्य के शब्दों में -
उसके दीप्त मस्तक पर उठा था जाति का गौरव |
कि क्षत्रियता उसी के काव्य मद से मत्त होती थी ||
जहाँ भी त्याग का बलिदान का मोती नजर आता |
कलम उनकी उसी क्षण शब्द सूत्रों से पिरोती थी ||
लेखक : ठाकुर सोभाग्य सिंह शेखावत, भगतपुर
साभार :- ज्ञान दर्पण
मातृभूमि के लिए अपने प्राणों का बलिदान का देने वाले ऐसे ही सपूतों के बल पर ही देश स्वतंत्र रहते है और उनका त्याग प्रेरणा देता हुआ भावी पीढ़ियों के राष्ट्र प्रेम की भावना जाग्रत रखता है |
पर अफ़सोस कि हमने मातृभूमि के लिए प्राणों की बलि देने वाले उन सपूतों को भुला दिया और उन लोगों की प्रतिमाओं पर मालाएँ चढ़ा रहे है जिन्होंने सिर्फ कुछ दिन अंग्रेजों की जेल में रहकर रोटियां तोड़ी | हमारी भावी पीढ़ी उन जेल भरने वाले सेनानियों से क्या प्रेरणा लेगी ?

गुरुवार, 28 मई 2020

#जालौर_के_शासक_वीर_कान्हड़देव_सोनिगरा

#जालौर_के_शासक_वीर_कान्हड़देव_सोनिगरा

जालौर के वीर कान्हड़देव सोनीगरा जिन्होंने अल्लाउद्दीन ख़िलजी से छीनी सोमनाथ मंदिर से लूटी हुयी मुर्तिया और बनवाया भव्य मंदिर

राजपुताना हमेशा धर्म की रक्षा में आगे रहा है कण कण में वीरो का बलिदान है ऐसा कोई गाव नही जहा राजपूत झुंझार की देवालय छतरिया न हो

वक़्त 12वीं शताब्दी जब भारत तुर्को के जिहादी हमले झेल रहा था उसी समय जालौर में चौहानो 
की शाखा सोनीगरा में महाराजा सामंत सिंह के यहाँ जन्म हुआ वीर कान्हड़देव का जो आगे चल कर जालौर के राजा बने

उनके कुशल नेतृत्व में जालौर की सीमाये सुदृढ़ हुयी और कान्हड़देव जी स्वर्णगिरी दुर्ग से राज्य चलने लगे
राज्य में एक से बढ़ कर एक योद्धा थे

उसी समय अल्लाउद्दीन ख़िलजी ने गुजरात में आक्रमण किया और बहुत मार काट मचाई उसने हिन्दुओ के 12 ज्योतीर्लिंग में से एक सोमनाथ महादेव के मंदिर को 1298 ईस्वी में पुनः लूटा और हजारो लोगो को गुलाम बना कर अल्लाउद्दीन ख़िलजी की सेना ने सेनापति उलुग खा के साथ उत्तर की तरफ रुख किया 

 गुजरात के शहरो को तबाह करते हुए अल्लाउद्दीन की सेना 1299 ईस्वी में राजपूताने में प्रविष्ट हुयी और जालोर राज्य में साकरना गाव के पास डेरा लगाया

जब ये बात कान्हड़देव जी पता चली तो उनकी भुजाये फड़कने लगी और अपने 4 राजपूत वीर योद्धा जिनमे कांधल जी और जैता देवड़ा जैसे बाहुबली थे उन्हें दूत बनाकर सकराणे भेजा

 अल्लुद्द्दीन ख़िलजी ने चारो के सामने आते ही ख़िलजी ने कहा जो भी आता है वो हमारे दरबार में शिश झुकाकर आता तब योद्धा राजपूतो ने जवाब दिया और कहा की  हमारा सिर सिर्फ मौत के वक़्त ही झुक सकता है इतना सुनते ही ख़िलजी आग बाबुला हुआ
और ऊपर की और एक तीर छोड़ा जो सीधा जा रही चील लो लगा और सैनिको को आदेश दिया की ये नीचे नही आना चाईए फिर क्या था सैनिको ने एक के बाद एक इतने तीर छोड़े की वो चील नीचे ही नही गिरी

कांधल समझ चुके थे की ख़िलजी शक्ति प्रदर्शन करवा रहा है तब वहा डेरे में पास ही खड़े एक भैंसे को कांधल ने एक ही वार में दो टुकड़े कर डाले तभी वजीर ने बीच बचाव करते हुए कहा की ये राजपूत है अखड़ स्वाभाव के होते है चारो वीर वहा अल्लाउद्दीन को चेतवानी देकर आ गए

किल्ले में पहुचते ही सार बात कान्हड़ देव सोनीगरा को बताई उन्हें पता चला की सोमनाथ शिवलिंग के साथ उन्होंने महिलाओं बच्चों को भी कैद कर रखा है

 इतना सुनते ही कान्हड़ देव ने प्रतिज्ञा की 
'वह जब तक सोमनाथ महादेव शिवलिंग को एवं बंदियों को मुक्त नहीं करवा देगा, तब तक वह अन्न ग्रहण नहीं करेगा' 

किल्ले में विश्वनीय योद्धाओ और तैयार किया गया पूरी सेना को दो भागो में बाटा एक टुकड़ी का नेतृत्व 
जैता/जैत्र देवड़ा कर रहे थे
आधी रात को किले से सेना निकली और 9 कोस दूर सकरने के पास रुकी  सुबह के पहर में अपने से 10 गुणी बडी सेना पर अचानक हमला किया गया अचानक हुए इस हमले से तुर्क हक्के बक्के रह गए एक टुड़की ने औरतो बच्चों को छुड़ाया और लूटी मूर्तियो को अपने कब्जे में लिया वहा दूसरी टुकड़ी ने तब तक तुर्को को उलजाये रखा इसी बीच अल्लाद्दीन भाग निकला वही अल्लाउद्दीन का भतीजा हाथ लग गया जैत्र देवड़ा ने एक वार से उसके दो टुकड़े कर दिए तुर्को की लाशें बीच गयी
कांधल ने आईजुद्दीन व नाहर नाम के दो तुर्क अधिकारीयो को मार गिराया
राजपूतो के अद्वितिय पराक्रम दिखाया

सुबह होने सब वीर किल्ले में लौट आये कान्हड़देव ने अपना वचंन पूरा किया वही कुछ मूर्तिया वीर राजपूत योद्धा और विश्वनीय चारणो और राजपुतोहितो से सोमनाथ भिजवाई वही दूसरी मूर्तियो को जालोर के मकराणे गाव में हवन द्वारा वाला स्थापित कर मंदिर बनवाया

पर कुछ ही वक़्त बाद अल्लाउदीन एक विशाल फ़ौज लेकर जालोर आया किल्ले को कई माह तक संघर्ष चला अल्लाउद्दीन ने किल्ले घेरे रखा पर अंत में एक राशन खत्म होने की वजह हजारो राजपुतानियो ने महारानी केवल दे, जैतल दे,भवल दे जौहर की रस्म पूरी की और अपने सतीत्व की रक्षा के लिए आगे में कूद पड़ी 

"गढरी परधी घेर, बैरी रा घेरा पड़या।
सत्यां काली रात ने, जौहर सूं चनण करी।।"

वही हजारो राजपूत अन्तिम सांस तक लड़े इस बारे में कहा गया

"आभा फटे धर ऊलटे,कटे बखतरा कोर, फूटे सिर धड फड़फडे, जद छूटे जालोर !!"

#क्षत्रिय_योद्धा_बन्दाबहादुरसिंह

#क्षत्रिय_योद्धा_बन्दाबहादुरसिंह

बाबा बन्दा सिंह बहादुर का जन्म कश्मीर स्थित पुंछ ज़िले के तहसील राजौरी क्षेत्र में विक्रम संवत् 1727, कार्तिक शुक्ल 13 (1670 ई.) को हुआ था। बंदा बहादुर सिंह राजपूत परिवार से थे और उनका वास्तविक नाम लक्ष्मणदेव था। लक्ष्मण देव के भाग्य मे विद्या नही थी, लेकिन छोटी सी उम्र मे पहाड़ी जवानों की भांति कुश्ती और शिकार आदि का बहुत शौक़ था | वह अभी 15 वर्ष की उम्र के ही थे कि ऎेक गर्भवती हिरणी के उनके हाथों हुए शिकार ने उने अतयंत शोक में ङाल दिया। इस घटना का उनके मन मे गहरा प्रभाव पड़ा। वह अपना घर-बार छोड़कर ऎेक बेरागी बन गये। वह जानकी दास नाम के एक बैरागी के शिष्य हो गए और उनका नाम माधोदास बैरागी पड़ा। तदन्तर उन्होंने एक अन्य बाबा रामदास बैरागी का शिष्यत्व ग्रहण किया और कुछ समय तक पंचवटी (नासिक) में रहे। वहाँ एक औघड़नाथ से योग की शिक्षा प्राप्त कर वह पूर्व की ओर दक्षिण के नान्देड क्षेत्र को चला गए जहाँ गोदावरी के तट पर उन्होंने एक आश्रम की स्थापना की।
बन्दा सिंह ने अपने राज्य के एक बड़े भाग पर फिर से अधिकार कर लिया और इसे उत्तर-पूर्व तथा पहाड़ी क्षेत्रों की ओर लाहौर और अमृतसर की सीमा तक विस्तृत किया। 1715 ई. के प्रारम्भ में बादशाह फ़र्रुख़सियर की शाही फ़ौज ने अब्दुल समद ख़ाँ के नेतृत्व में उन्हें गुरुदासपुर ज़िले के धारीवाल क्षेत्र के निकट गुरुदास नंगल गाँव में कई मास तक घेरे रखा। खाद्य सामग्री के अभाव के कारण उन्होंने 7 दिसम्बर को आत्मसमर्पण कर दिया। फ़रवरी 1716 को 794 सिक्खों के साथ वह दिल्ली लाये गए जहाँ 5 मार्च से 13 मार्च तक प्रति दिन 100 की संख्या में सिक्खों को फाँसी दी गयी। 16 जून को बादशाह फ़र्रुख़सियर के आदेश से बन्दा सिंह तथा उनके मुख्य सैन्य-अधिकारियों के शरीर काटकर टुकड़े-टुकड़े कर दिये गये।

मरने से पूर्व बन्दा सिंह बहादुर जी ने अति प्राचीन ज़मींदारी प्रथा का अन्त कर दिया था तथा कृषकों को बड़े-बड़े जागीरदारों और ज़मींदारों की दासता से मुक्त कर दिया था। वह साम्प्रदायिकता की संकीर्ण भावनाओं से परे थे। मुसलमानों को राज्य में पूर्ण धार्मिक स्वातन्त्र्य दिया गया था। पाँच हज़ार मुसलमान भी उनकी सेना में थे। बन्दा सिंह ने पूरे राज्य में यह घोषणा कर दी थी कि वह किसी प्रकार भी मुसलमानों को क्षति नहीं पहुँचायेगे और वे सिक्ख सेना में अपनी नमाज़ पढ़ने और खुतवा करवाने में स्वतन्त्र होंगे।

#सिक्ख_धर्म_की_स्थापना_में_राजपूतों_का_योगदान_भाग--4

#सिक्ख_धर्म_की_स्थापना_में_राजपूतों_का_योगदान_भाग--4
****भाई आलम सिंह चौहान "नचणा" जी शहीद****

भाई आलम सिंह जी , चौहान राजपूत घराने से संबंध रखते थे।
सूरज प्रकाश ग्रंथ,भट्ट बहियों,गुरु कीआं साखीयां आदि रचनाओं में इसका स्पष्ट उल्लेख है ।
"आलम सिंघ धरे सब आयुध,जात जिसी रजपूत भलेरी ।
खास मुसाहिब दास गुरु को,पास रहै नित श्री मुख हेरी ।
बोलन केर बिलास करैं, जिह संग सदा करुणा बहुतेरी ।
आयस ले हित संघर के,मन होए आनंद चलिओ तिस बेरी ।"
(सूरज प्रकाश ग्रंथ- कवि संतोख सिंघ जी..रुत 6,अंसू 39,पन्ना 2948)

भाई आलम सिंह जी का जन्म दुबुर्जी उदयकरन वाली,जिला स्यालकोट (अब पाकिस्तान) में सन् 1660 हुआ,जो उनके पूर्वजों ने सन् 1590 में बसाया था ।
भाई आलम सिंह जी के पिता राव (भाई)दुर्गा दास जी, दादा राव (भाई)पदम राए जी, परदादा राव (भाई)कौल दास जी ,सिख गुरु साहिबान के निकटवर्ती सिख व महान योद्धा थे ।

भाई आलम सिंह जी के दादा के भ्राता राव (भाई ) किशन राए जी छठे गुरु श्री गुरु हरगोबिन्द साहिब जी द्वारा  मुगलों के खिलाफ लड़ी करतारपुर की जंग में 27 अप्रैल 1635 को शहीद हुए थे ।
भाई आलम सिंह जी सन् 1673 में 13 वर्ष की आयु में अपने पिता राव (भाई) दुर्गा दास जी के साथ गुरु गोबिन्द सिंह जी के दर्शन करने आए ।
गुरु जी ने उनको अपने खास सिखों में शामिल कर लिया । वो इतने फुर्तीले थे कि गुरु जी ने उनका नाम 'नचणा' रख दिया था ।

फरवरी 1696 में मुगल फौजदार हुसैन खान ने जब पहाड़ी राजपूत रियासत गुलेर पर आक्रमण किया तो वहां के राजा गज सिंह ने गुरु गोबिन्द सिंह जी से मदद मांगी । गुरु जी ने अपने चुनिंदा सेनापतियों के नेतृत्व मे सिख फौज भेजी । राजपूतों व सिखों की संयुक्त सेना ने मुगल फौज को बुरी तरह परास्त किया लेकिन इस युद्ध में भाई आलम सिंघ जी के ताऊ जी के 2 पुत्र कुंवर (भाई) संगत राए जी व कुंवर भाई हनुमंत राए जी शहीद हो गए । साथ में राव भाई मनी सिंह जी (पंवार) के भाई राव (भाई) लहणिया जी भी शहीद हुए ।
गुरु गोबिन्द सिंह जी द्वारा जुल्म के खिलाफ लड़े गए हर युद्ध में भाई आलम सिंह जी की मुख्य भूमिका रही और बड़ी बात ये भी है कि वो गुरु गोबिन्द सिंघ जी के शस्त्र विद्या के उस्ताद भाई बज्जर सिंघ जी (राठौड़) के दामाद थे ।

भाई आलम सिंह जी के समस्त परिवार ने गुरु जी द्वारा मुगलों के खिलाफ युद्धों में मोर्चा संभाला व समय समय पर शहीदीयां दी ।
भाई आलम सिंह जी भी अपने एक भ्राता भाई बीर सिंह जी व अपने दो पुत्रों सहित चमकौर की जंग में 7 दिसंबर 1705 को शहीद हुए ।

भाई आलम सिंह जी की वंशावली 👉

महाराजा सधन वां (अहिच्छेत्र के महाराजा)
महाराजा चांप हरि
महाराजा कोइर सिंह
महाराजा चांपमान
महाराजा चाहमान (चौहान)
महाराजा नरसिंह
महाराजा वासदेव
महाराजा सामंतदेव
महाराजा सहदेव
महाराजा महंतदेव
महाराजा असराज
महाराजा अरमंतदेव
महाराजा माणकराव
महाराजा लछमन देव
महाराजा अनलदेव
महाराजा स्वच्छ देव
महाराजा अजराज
महाराजा जयराज
महाराजा विजयराज
महाराजा विग्रह राज
महाराजा चन्द्र राज
महाराजा दुर्लभ राज
महाराजा गूणक देव
महाराजा चन्द्र देव
महाराजा राजवापय
महाराजा शालिवाहन
महाराजा अजयपाल
महाराजा दूसलदेव
महाराजा बीसलदेव
महाराजा अनहलदेव
महाराजा विग्रह राज
महाराजा मांडलदेव
महाराजा दांतक जी
महाराजा गंगवे
महाराजा राण जी
महाराजा बीकम राय
महाराजा हरदेवल
महाराजा गोल राय
महाराजा गोएल राय
महाराजा गज़ल राय
राव उदयकरन जी
राव अंबिया राय
राव कौल दास
राव पदम राय
राव दुर्गा दास
राव आलम सिंह जी

लेखक---श्री सतनाम सिंह जी ग्रेटर कैलाश नई दिल्ली

#शहीद_उदासिंह_राठौड़_जी,#एक_वीर_राजपूत_यौद्धा

#शहीद_उदासिंह_राठौड़_जी,#एक_वीर_राजपूत_यौद्धा

#सिक्ख_धर्म_की_स्थापना_में_राजपूतों_का_योगदान_भाग-5

वीर सिक्ख राजपूत यौद्धा शहीद भाई ऊदा जी राठौड़ (रमाने राठौड़)

श्री गुरु तेगबहादुर जी की दिल्ली के चांदनी चौंक में हुई शहादत के पश्चात उनके पावन धड़ का अंतिम संस्कार भाई लक्खी राय जी ने अपने घर को आग लगाकर कर दिया गया ।
दूसरी तरफ भाई जैता जी गुरु साहिब के शीश को उठा के चल पड़े । रास्ते में उनके पिता भाई अाज्ञा जी,भाई नानू जी व भाई ऊदा जी उनसे आ मिले ।
ये चारों सिख दिन रात सफर करके श्री आनंदपुर साहिब पहुंचे ।
गुरु गोबिन्द सिंघ जी ने सभी को प्यार दिया व विशेष रूप से भाई जैता जी को रंघरेटा गुरु का बेटा कह के सम्मान दिया ।
भाई अाज्ञा जी व भाई जैता जी रंघरेटा जाति से संबंध रखते थे और दिल्ली निवासी थे ।
भाई नानू जी छींबा जाति से संबंध रखते थे और वो भी दिल्ली निवासी थे ।
भाई ऊदा जी राठौड़ राजपूत घराने से संबंध रखते थे और उनकी शाखा "रमाने" थी ।
भाई ऊदा जी का जन्म राव खेमा चंदनीया जी के घर 14 जून 1646 ईस्वी को हुआ ।
आप राव धर्मा जी राठौड़ के पोते व राव भोजा जी राठौड़ के पड़पोते थे ।
आप की उस्ताद भाई बज्जर सिंघ जी राठौड़ के साथ भी रिश्तेदारी थी क्योंकि "उदाने" व "रमाने" दो सगे भाईयों राव ऊदा जी राठौड़ व राव रामा जी राठौड़ के वंशज हैं ।
भाई ऊदा जी, गुरु गोबिन्द सिंघ जी व सिख सेना द्वारा लड़े गये भंगाणी के युद्ध में 18 सितंबर 1688 को शहीद हुए थे । उनके साथ गुरु गोबिन्द सिंघ जी की बुआ बीबी वीरो जी के सुपुत्र भाई संगो शाह जी व भाई जीत मल जी एवं राव माई दास जी पंवार के पुत्र भाई हठी चंद भी शहीद हुए थे ।
भाट बहियों/ख्यातों में उनकी शहीदी का जिक्र है-

"ऊदा बेटा खेमे चंदनिया का पोता धरमे का पड़पोता भोजे का, सूरज बंसी गौतम गोत्र राठौड़ रमाना, गुरु की बुआ के बेटे संगो शाह, जीत मल बेटे साधु के पोते धरमे खोसले खत्री के गैल रणभूमि में आये । साल सत्रह सै पैंतालीस असुज प्रविष्टे अठारह, भंगाणी के मल्हान, जमना गिरि के मध्यान्ह ,राज नाहन, एक घरी दिहुं खले जूझंते सूरेयों गैल साह्मे माथे जूझ कर मरा । गैलों हठी चंद बेटा माई दास का, पोता बल्लू राय का, चन्द्र बंसी, भारद्वाज गोत्र,पंवार,  बंस बींझे का बंझावत, जल्हाना, बालावत मारा गया ।"
    (भाट बही मुलतानी सिंधी, खाता रमानों का)

भाई ऊदा जी सूर्यवंशी राठौड राजपूत वंश के शासक वर्ग से संबंध रखते थे। वो मारवाड के राठौड राजवंश के वंशंज थे --
**वंशावली**
राव सीहा जी
राव अस्थान
राव दुहड
राव रायपाल
राव कान्हापाल
राव जलहनसी
राव छाडा जी
राव टीडा
राव सल्खो
राव वीरम देव
राव चूंडा
राव रिडमल
राव लाखा (राव जोधा के भाई)
राव जौना
राव रामजी
राव सल्हा जी
राव नाथू जी
राव रामा जी
राव रणमल जी
राव भोजा जी
राव धर्मा जी
राव प्रेमा चंदनिया जी
भाई ऊदा जी

लेखक---श्री सतनाम सिंह जी (ग्रेटर कैलाश)

#भोमसिंह_करमसोत_राठौड़

#भोमसिंह_करमसोत_राठौड़

उस दिन जोधपुर का मेहरानगढ़ किला खाली करके अंग्रेजों को सुपुर्द करने का कार्य चल रहा था। किले के बाहर कर्नल सदरलैण्ड और कप्तान लुडलो अपने पांच-सात सौ सैनिकों के साथ किले पर अधिकार के लिए किला खाली होने का इंतजार कर रहे थ। किले के किलेदार रायपुर ठिकाने के ठाकुर माधोसिंह किला खाली करने के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने महाराजा मानसिंह की किले में उपस्थिति के बिना किला खाली करने से साफ इंकार कर दिया। आखिर स्वतंत्र रहने की चाहत रखने वाले किलेदार को महाराजा मानसिंह ने किले में आकर समझाया तब जाकर किलेदार किला खाली करने को सहमत हुये। महाराजा ने स्वयं साथ जाकर अंग्रेजों के आदमियों को जगज जगह नियुक्त करने के साथ उनका अपने आदमियों से परिचय कराया। इस तरह मेहरानगढ़ किला खाली कर दिया गया। राजा व रानियाँ भी किले से बाहर रहने को चले गये। किला खाली होने की सूचना पाकर कर्नल सदरलैण्ड और कप्तान लुडलो अपने सैनिकों के साथ किले के भीतर गए। कर्नल सदरलैण्ड महाराजा के साथ वापस आ गया और कप्तान लुडलो अपने 300 सैनिकों के साथ किले की व्यवस्था व प्रबन्ध हेतु किले में रहा। इस तरह जोधपुर के मेहरानगढ़ किले पर जिसकी स्वतंत्रता लिए रणबंका राठौड़ों ने वर्षों अपने प्राणों का वर्षों तक बलिदान दिया, अंग्रेजों के अधीन हो गया।

 

लेकिन स्वतंत्रता प्रेमी लोगों को यह सब रास नहीं आया, कवियों ने अपनी रचनाओं में इस घटना पर व्यंग्यपूर्ण अभिव्यक्तियाँ की। एक कवि ने इस पर प्रतिक्रिया स्वरूप कहा-
राण्या तळहट्या उतरै, राजा भुगतै रेस।
गढ़ ऊपर गौरां फिरै, सुरग गया सगतेस।।
इस दोहे का असर अन्य किसी पर हुआ हो या नहीं, परन्तु वहां उपस्थित स्वतंत्रता प्रिय करमसोत राठौड़ सरदार भोमजी पर अवश्य हुआ और उसकी प्रतिक्रिया जुबान से ना होकर तलवार के वार से अभिव्यक्त हुई। भोमसिंह ने सुरक्षा कर्मियों से घिरे पॉलिटिकल एजेन्ट मिस्टर लुडलो पर एकाएक तलवार से वार कर अपने राजपूती शौर्य और स्वतंत्रता प्रेम को प्रदर्शित किया। सुरक्षाकर्मियों के बीच में आने के कारण मिस्टर लुडलो मामूली चोट से घायल ही हुआ, पर लुडलो के सुरक्षा कर्मियों से मुठभेड़ में भोमसिंह घायल हो गया और वह चार-पांच दिन बाद वीरगति को प्राप्त हुआ। इस घटना पर महाराजा द्वारा खेद प्रकट करने पर मामला वहीं शांत हो गया। जोधपुर के स्वतंत्रता प्रिय महाराजा मानसिंह को अपने राज्य की आंतरिक परिस्थियों, उनके खिलाफ अनवरत चले षड्यंत्र, सामंत-सरदारों का पूर्ण सहयोग नहीं मिलने पाने के कारण विवश होकर वि.सं. 1860, पौष शुक्ल 9 को अंग्रेजों के साथ संधि करनी पड़ी। किन्तु शर्तों के उटपटांग होने के कारण महाराजा मानसिंह ने उस पर अपने हस्ताक्षर नहीं किये। वि.सं. 1874 पौष कृष्णा 30 को छत्रसिंह के राज्यकाल के समय पुनः अंग्रेजों के साथ संधि हुई। महाराजा मानसिंह इस संधि से संतुष्ट नहीं थे। वि. सं. 1875 में अंग्रेजों से एक और संधि हुई, किन्तु महाराजा मानसिंह ने कभी अंग्रेजों को कर नहीं चुकाया और आंतरिक शासन में अंग्रेजों के दखल को लेकर उनके हमेशा मतभेद रहे। 
महाराजा को बेशक अपनी विवशता के चलते अंग्रेजों से संधि करनी पड़ी, पर भोमसिंह द्वारा अंग्रेज अधिकारी पर हमला करने, ठाकुर माधोसिंह द्वारा किला खाली करने से इन्कार करना साफ जाहिर करता है कि आम राजपूत अंग्रेजों की चाल को समझता था और उसे अंग्रेजों की गुलामी पसंद नहीं थी। इससे पूर्व भी साथीणा के भाटी सरदार शक्तिदान ने अंग्रेज सत्ता के खिलाफ अपनी अभिव्यक्ति व्यक्त की थी, पर उनका अजमेर में निधन के होने के बाद यह मुहीम आगे नहीं बढ़ी।

सन्दर्भ: इस घटना का जिक्र पंडित विश्वेश्वर नाथ रेऊ ने अपनी पुस्तक ‘मारवाड़ के इतिहास’ व ‘करमसोत राठौड़ों का पूर्वज और वंशज’ पुस्तक में सवाईसिंह व छाजूसिंह बड़नगर ने किया है।

वीरवर राव बल्लुजी चांपावत रौ इतिहास

#वचन(#कौळ)#निभाने_के_लिए_लड़ते_हुए_दो_बार_वीरगति_को_प्राप्त_हुए_वीरवर_राव_बल्लूजी_चांपावत !

मनुष्य केवल एक बार जन्म लेता है और एक ही बार मरता है। लेकिन, राजस्थान के रेतीले धोरों की फिजाओं में एक ऐसे वीर की कथा गूंजती है जिसने जन्म भले की एक बार लिया हो लेकिन अपने वचन को निभाने के लिए मृत्यु की जयमाला दो बार गले में पहनी। आज भी यहां इस वीर की याद में अक्सर गाया जाता है कि

जलम्यो केवल एक बार, परणी एकज नार।
लडियो, मरियो कौळ पर, इक भड दो-दो बार।।

अर्थात – उस वीर ने केवल एक ही बार जन्म लिया।
परन्तु अपने वचन(कौळ) का निर्वाह करते हुए वह वीर दो-दो बार लड़ता हुआ वीर-गति को प्राप्त हुआ।

जोधपुर के महाराजा गजसिंह ने अपने ज्येष्ट पुत्र अमरसिंह को जब राज्याधिकार से वंचित कर देश निकला दे दिया तो बल्लूजी चाम्पावत व भावसिंह कुंपावत दोनों सरदार अमरसिंह के साथ यह कहते हुए चल दिए कि यह आपका विपत्ति काल है और विपत्ति काल में हम सदैव आपकी सहायता करेंगे। यह हमारा वचन है। दोनों ही वीर अमरसिंह के साथ बादशाह के पास आगरा आ गए। यहां आने पर बादशाह ने अमरसिंह को नागौर परगना का राज्य सौंप दिया।

अमरसिंह को मेंढे लड़ाने का बहुत शौक था इसलिए, नागौर में अच्छी किस्म के मेंढे पाले गए और उन मेंढों की भेडियों से रक्षा हेतु सरदारों की नियुक्ति की जाने लगी और एक दिन इसी कार्य हेतु बल्लू चांपावत की भी नियुक्ति की गयी इस पर बल्लूजी यह कहते हुए नागौर छोडकर चल दिए कि मैं विपत्ति में अमरसिंह के लिए प्राण देने आया था, मेंढे चराने नहीं। अब अमरसिंह के पास राज्य भी है, विपत्ति काल भी नहीं, अतः अब मेरी यहां जरूरत नहीं है।

इसके बाद बल्लू चांपावत महाराणा के पास उदयपुर चले गए। कहा जाता है कि वहां भी अन्य सरदारों ने महाराणा से कहकर उन्हें निहत्थे ही शेर से लड़ा दिया। सिंह को मारने के बाद बल्लूजी यह कह कर वहां से भी चल दिए कि वीरता की परीक्षा दुश्मन से लड़ाकर लेनी चाहिए थी। जानवर से लड़ाना वीरता का अपमान है। इसके बाद उन्होंने उदयपुर भी छोड़ दिया। बाद में महाराणा ने एक विशेष बलिष्ट घोड़ी बल्लूजी के लिए भेजी। जिससे प्रसन्न होकर बल्लूजी ने वचन दिया कि जब भी मेवाड़ पर संकट आएगा तो मैं सहायता के लिए अवश्य आऊंगा। केवल सच्चे मन से एक बार याद कर लेना।

इसके बाद जब अमरसिंह राठौड़ आगरा के किले में सलावत खां को मारने के बाद खुद धोखे से मारे गए, तब उनकी रानी हाड़ी ने सती होने के लिए अमरसिंह का शव आगरे के किले से लाने के लिए बल्लू चांपावत व भावसिंह कुंपावत को बुलवा भेजा (क्योंकि विपत्ति में सहायता का वचन इन्हीं दोनों वीरों ने दिया था)।

बल्लूजी चांपावत अमरसिंह का शव लाने के लिए किसी तरह आगरा के किले में प्रविष्ट हो वहां रखा शव लेकर अपने घोड़े सहित आगरे के किले से कूद गए और शव अपने साथियों को सुपुर्द कर दिया लेकिन, खुद बादशाह के सैनिको को रोकते हुए वीर-गति को प्राप्त हो गए।

कहा जाता है कि इस घटना के कुछ समय बाद जब मेवाड़ के महाराणा राजसिंह का मुगल बादशाह औरंगजेब से युद्ध हुआ। तब महाराणा के मन मे आभास हुआ कि आज बल्लू चांपावत जिंदा होता तो वो अकेला ही काफी था। इतना सोचते ही दूर से एक घुड़सवार आता हुआ प्रतीति हुआ तो कुछ ही क्षण में लोगों ने देखा कि बल्लू चांपावत उसी घोड़ी (जो महाराणा ने उसे भेंट दी थी ) पर बैठ कर तलवार चला रहे हैं।

आगरा में तलवार चलाते वीर-गति को प्राप्त हुए बल्लू चांपावत को लोगों ने दूसरी बार देबारी की घाटी में तलवार चलाते हुए फिर से वीर-गति को प्राप्त होते हुए लोगों ने देखा। कहा जाता है कि वह क्षत्रिय मृत्यु के उपरांत भी अपना वचन निभाने के लिए देबारी की घाटी में युद्ध लड़ने आया था।ऐसे वीरो को तहेदिल से नमनः करता हुँ आज गर्व होता हैं कि हम ऐसे वीर की संतानें हैं जिन्होंने दुसरो के लिए अपने प्राण नियोचावर कर दिये। और अपने वचन(कौळ) के खातिर दो दो बार वीरगति प्राप्त की ....धन्य हैं वीर पुरुष.....धन्य हैं ये राजपूताने की धरां....

जय माँ भवानी
जय राजपुताना

- लक्ष्मणसिंह चौराऊ

#परमवीर_मेजर_शैतानसिंह_भाटी

#परमवीर_मेजर_शैतानसिंह_भाटी

१८ नवम्बर १९६२ की सुबह अभी हुई ही नहीं थी, सर्द मौसम में सूर्यदेव अंगडाई लेकर सो रहे थे अभी बिस्तर से बाहर निकलने का उनका मन ही नहीं कर रहा था, रात से ही वहां बर्फ गिर रही थी। हाड़ कंपा देने वाली ठण्ड के साथ ऐसी ठंडी बर्फीली हवा चल रही थी जो इंसान के शरीर से आर-पार हो जाये और इसी मौसम में जहाँ इंसान बिना छत और गर्म कपड़ों के एक पल भी नहीं ठहर सकता, उसी मौसम में समुद्र तल से १६४०४ फुट ऊँचे चुशूल क्षेत्र के रेजांगला दर्रे की ऊँची बर्फीली पहाड़ियों पर आसमान के नीचे, सिर पर बिना किसी छत और काम चलाऊ गर्म कपड़े और जूते पहने सर्द हवाओं व गिरती बर्फ के बीच हाथों में हथियार लिये ठिठुरते हुए भारतीय सेना की १३ वीं कुमाऊं रेजीमेंट की सी कम्पनी के १२० जवान अपने सेनानायक मेजर शैतान सिंह भाटी के नेतृत्व में बिना नींद की एक झपकी लिये भारत माता की रक्षार्थ तैनात थे।
एक और खुली और ऊँची पहाड़ी पर चलने वाली तीक्ष्ण बर्फीली हवाएं जरुरत से कम कपड़ों को भेदते हुये जवानों के शरीर में घुस पुरा शरीर ठंडा करने की कोशिशों में जुटी थी वहीँ भारत माता को चीनी दुश्मन से बचाने की भावना उस कड़कड़ाती ठंड में उनके दिल में शोले भड़काकर उन्हें गर्म रखने में कामयाब हो रही थी। यह देशभक्ति की वह उच्च भावना ही थी जो इन कड़ाके की बर्फीली सर्दी में भी जवानों को सजग और सतर्क बनाये हुये थी।
अभी दिन उगा भी नहीं था और रात के धुंधलके और गिरती बर्फ में जवानों ने देखा कि  कई सारी रौशनीयां उनकी और बढ़ रही है चूँकि उस वक्त देश का दुश्मन चीन दोस्ती की आड़ में पीठ पर छुरा घोंप कर युद्ध की रणभेरी बजा चूका था, सो जवानों ने अपनी बंदूकों की नाल उनकी तरफ आती रोशनियों की और खोल दी। पर थोड़ी ही देर में मेजर शैतान सिंह को समझते देर नहीं लगी कि उनके सैनिक जिन्हें दुश्मन समझ मार रहे है दरअसल वे चीनी सैनिक नहीं बल्कि गले में लालटेन लटकाये उनकी और बढ़ रहे याक है और उनके सैनिक चीनी सैनिकों के भरोसे उन्हें मारकर अपना गोला-बारूद फालतू ही खत्म कर रहे है।
दरअसल चीनी सेना के पास खुफिया जानकारी थी कि  रेजांगला पर उपस्थित भारतीय सैनिक टुकड़ी में सिर्फ १२० जवान है और उनके पास ३००-४०० राउंड गोलियां और महज १००० हथगोले है अतः अँधेरे और खराब मौसम का फायदा उठाते हुए चीनी सेना ने याक जानवरों के गले में लालटेन बांध उनकी और भेज दिया ताकि भारतीय सैनिकों का गोला-बारूद खत्म हो जाये। जब भारतीय जवानों ने याक पर फायरिंग बंद कर दी तब चीन ने अपने २००० सैनिकों को रणनीति के तहत कई चरणों में हमले के लिए रणक्षेत्र में उतारा।
मेजर शैतान सिंह ने वायरलेस पर स्थिति की जानकारी अपने उच्चाधिकारियों को देते हुये समय पर सहायता मांगी पर उच्चाधिकारियों से जबाब मिला कि वे सहायता पहुँचाने में असमर्थ है आपकी टुकड़ी के थोड़े से सैनिक चीनियों की बड़ी सेना को रोकने में असमर्थ रहेंगे अतः आप चौकी छोड़ पीछे हट जायें और अपने साथी सैनिकों के प्राण बचायें। उच्चाधिकारियों का आदेश सुनते ही मेजर शैतान सिंह के मस्तिष्क में कई विचार उमड़ने घुमड़ने लगे। वे सोचने कि उनके जिस वंश को उतर भड़ किंवाड़ की संज्ञा सिर्फ इसलिये दी गई कि भारत पर भूमार्ग से होने वाले हमलों का सबसे पहले मुकाबला जैसलमेर के भाटियों ने किया, आज फिर भारत पर हमला हो रहा है और उसका मुकाबला करने को उसी भाटी वंश के मेजर शैतान सिंह को मौका मिला है तो वह बिना मुकाबला किये पीछे हट अपने कुल की परम्परा को कैसे लजा सकता है?
और उतर भड़ किंवाड़ कहावत को चरितार्थ करने का निर्णय कर उन्होंने अपने सैनिकों को बुलाकर पूरी स्थिति साफ साफ बताते हुये कहा कि - मुझे पता है हमने चीनियों का मुकाबला किया तो हमारे पास गोला बारूद कम पड़ जायेगा और पीछे से भी हमें कोई सहायता नहीं मिल सकती, ऐसे में हमें हर हाल में शहादत देनी पड़ेगी और हम में से कोई नहीं बचेगा। चूँकि उच्चाधिकारियों का पीछे हटने हेतु आदेश है अतः आप में से जिस किसी को भी अपने प्राण बचाने है वह पीछे हटने को स्वतंत्र है पर चूँकि मैंने कृष्ण के महान युदुवंश में जन्म लिया है और मेरे पुरखों ने सर्वदा ही भारत भूमि पर आक्रमण करने वालों से सबसे पहले लोहा लिया है, आज उसी परम्परा को निभाने का अवसर मुझे मिला है अतः मैं चीनी सेना का प्राण रहते दम तक मुकाबला करूँगा. यह मेरा दृढ निर्णय है।
अपने सेनानायक के दृढ निर्णय के बारे में जानकार उस सैन्य टुकड़ी के हर सैनिक ने निश्चय कर लिया कि उनके शरीर में प्राण रहने तक वे मातृभूमि के लिये लड़ेंगे चाहे पीछे से उन्हें सहायता मिले या ना मिले. गोलियों की कमी पूरी करने के लिये निर्णय लिया गया कि एक भी गोली दुश्मन को मारे बिना खाली ना जाये और दुश्मन के मरने के बाद उसके हथियार छीन प्रयोग कर गोला-बारूद की कमी पूरी की जाय। और यही रणनीति अपना भारत माँ के गिनती के सपूत, २००० चीनी सैनिकों से भीड़ गये, चीनी सेना की तोपों व मोर्टारों के भयंकर आक्रमण के बावजूद हर सैनिक अपने प्राणों की आखिरी सांस तक एक एक सैनिक दस दस, बीस बीस दुश्मनों को मार कर शहीद होता रहा और आखिर में मेजर शैतान सिंह सहित कुछ व्यक्ति बुरी तरह घायलावस्था में जीवित बचे, बुरी तरह घायल हुए अपने मेजर को दो सैनिकों ने किसी तरह उठाकर एक बर्फीली चट्टान की आड़ में पहुँचाया और चिकित्सा के लिए नीचे चलने का आग्रह किया, ताकि अपने नायक को बचा सके किन्तु रणबांकुरे मेजर शैतान सिंह ने इनकार कर दिया। और अपने दोनों सैनिकों को कहा कि उन्हें चट्टान के सहारे बिठाकर लाईट मशीनगन दुश्मन की और तैनात कर दे और गन के ट्रेगर को रस्सी के सहारे उनके एक पैर से बाँध दे ताकि वे एक पैर से गन को घुमाकर निशाना लगा सके और दुसरे घायल पैर से रस्सी के सहारे फायर कर सके क्योंकि मेजर के दोनों हाथ हमले में बुरी तरह से जख्मी हो गए थे उनके पेट में गोलियां लगने से खून बह रहा था जिस पर कपड़ा बाँध मेजर ने पोजीशन ली व उन दोनों जवानों को उनकी इच्छा के विपरीत पीछे जाकर उच्चाधिकारियों को सूचना देने को बाध्य कर भेज दिया।
सैनिकों को भेज बुरी तरह से जख्मी मेजर चीनी सैनिकों से कब तक लड़ते रहे, कितनी देर लड़ते रहे और कब उनके प्राण शरीर छोड़ स्वर्ग को प्रस्थान कर गये किसी को नहीं पता. हाँ युद्ध के तीन महीनों बाद उनके परिजनों के आग्रह और बर्फ पिघलने के बाद सेना के जवान रेडक्रोस सोसायटी के साथ उनके शव की तलाश में जुटे और गडरियों की सुचना पर जब उस चट्टान के पास पहुंचे तब भी मेजर शैतान सिंह की लाश अपनी एल.एम.जी गन के साथ पोजीशन लिये वैसे ही मिली जैसे मरने के बाद भी वे दुश्मन के दांत खट्टे करने को तैनात है।
मेजर के शव के साथ ही उनकी टुकड़ी के शहीद हुए ११४ सैनिकों के शव भी अपने अपने हाथों में बंदूक व हथगोले लिये पड़े थे, लग रहा था जैसे अब भी वे उठकर दुश्मन से लोहा लेने को तैयार है।
इस युद्ध में मेजर द्वारा भेजे गये दोनों संदेशवाहकों द्वारा बताई गई घटना पर सरकार ने तब भरोसा किया और शव खोजने को तैयार हुई जब चीनी सेना ने अपनी एक विज्ञप्ति में कबुल किया कि उसे सबसे ज्यादा जनहानि रेजांगला दर्रे पर हुई। मेजर शैतान सिंह की १२० सैनिकों वाली छोटी सी सैन्य टुकड़ी को मौत के घाट उतारने हेतु चीनी सेना को अपने २००० सैनिकों में से १८०० सैनिकों की बलि देनी पड़ी। कहा जाता है कि मातृभूमि की रक्षा के लिए भारतीय सैनिकों के अदम्य साहस और बलिदान को देख चीनी सैनिकों ने जाते समय सम्मान के रूप में जमीन पर अपनी राइफलें उल्टी गाडने के बाद उन पर अपनी टोपियां रख दी थी। इस तरह भारतीय सैनिकों को शत्रु सैनिकों से सर्वोच्च सम्मान प्राप्त हुआ था। शवों की बरामदगी के बाद उनका यथास्थान पर सैन्य सम्मान के साथ दाहसंस्कार कर मेजर शैतान सिंह भाटी को अपने इस अदम्य साहस और अप्रत्याशित वीरता के लिये भारत सरकार ने सेना के सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया।
जैसलमेर का प्राचीनतम इतिहास भाटी शूरवीरों की रण गाथाओं से भरा पड़ा है। जहाँ पर वीर अपने प्राणों की बाजी लगा कर भी रण क्षेत्र में जूझते हुए डटे रहते थे। मेजर शेतान सिंह की गौरव गाथा से भी उसी रणबंकुरी परम्परा की याद ताजा हो जाती है। स्वर्गीय आयुवान सिंह ने परमवीर मेजर शैतान सिंह के वीरोचित आदर्श पर दो शब्द श्रद्धा सुमन के सद्रश लिपि बद्ध किये है। कितने सार्थक है:---

रजवट रोतू सेहरो भारत हन्दो भाण
दटीओ पण हटियो नहीं रंग भाटी सेताण
जैसलमेर जिले के बंसार (बनासर) गांव के ले.कर्नल हेमसिंह भाटी के घर १ दिसम्बर १९२४ को जन्में इस रणबांकुरे ने मारवाड़ राज्य की प्रख्यात शिक्षण संस्था चौपासनी स्कुल से शिक्षा ग्रहण कर एक अगस्त 1949 को कुमाऊं रेजीमेंट में सैकेंड लेफ्टिनेंट के रूप में नियुक्ति  प्राप्त कर भारत माता की सेवा में अपने आपको प्रस्तुत कर दिया था। मेजर शैतान सिंह के पिता कर्नल हेमसिंह भी अपनी रोबीली कमांडिंग आवाज, किसी भी तरह के घोड़े को काबू करने और सटीक निशानेबाजी के लिये प्रख्यात थे।
ऐसे वीरो को शत् शत् नमनः

-  लक्ष्मण सिंह चौराऊ

#अमर_बलिदानी_वीर_बन्दासिंह_बहादुर

#अमर_बलिदानी_वीर_बन्दासिंह_बहादुर

आज सिंह गर्जना के माध्यम से हम अपने पाठकों का परिचय एक ऐसे वीर क्षत्रिय से करायेंगे जिसकी वीरता, त्याग  बलिदान, संघर्ष, शौर्य महाराणा प्रताप या किसी भी अन्य महान क्षत्रिय योद्धा से किंचित भी कम ना था लेकिन उसे भारत के इतिहास में बल्कि यहाँ तक क्षत्रिय इतिहास में भी वो सम्मान नहीं मिला जिसका वो हक़दार था।  
बन्दा सिंह बहादुर या बन्दा बैरागी पहले ऐसे सिख सेनापति हुए, जिन्होंने मुगलों के अजेय होने के भ्रम को तोड़ा; छोटे साहबजादों की शहादत का बदला लिया और गुरु गोबिन्द सिंह द्वारा संकल्पित प्रभुसत्ता सम्पन्न लोक राज्य की राजधानी लोहगढ़ की नीव रक्खी। यही नहीं, उन्होंने गुरु गोबिन्द सिंह के नाम से सिक्का और मोहर जारी करके, निम्न वर्ग के लोगों की उच्च पद दिलाया और हल वाहक किसान-मजदूरों को जमीन का मालिक बनाया।
बंदा बैरागी से वीर बंदा सिंह बहादुर बनने की रोचक कथा
यह सत्य है कि वीर भावुक व दयावान होता है। रणभूमि में अपनी जान को हथेली पर रखकर दुश्मन को मौत के घाट उतारने वाला वीर, किसी का दुख देख उद्वेलित हुए बिना नहीं रह सकता। श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज अपनी दक्षिण यात्रा के समय यह अच्छी तरह समझ रहे थे कि हिरणी के शिकार के बाद उसके पेट से निकले बच्चों को देखकर वैराग्य धरण करने वाले क्षत्रिय, सुदूर जम्मू से गोदावरी के तट पर आकर बसने वाले माधेदास बैरागी के अन्दर एक महान वीर पुरुष छिपा है। आवश्यकता है, उसे सही दिशा देने की। इसीलिए स्वांग रचाना भी आवश्यक था।
दया परवान'' का उपदेश देने वाले गुरु साहब के दशवें स्वरूप गुरु गोबिन्द सिंह आज बकरी के मासूम बच्चों का झटका' करने व उनके खून को एक सन्यासी के डेरे में जगह-२ छिड़कने का हुक्म पफरमा रहे थे। हिरणी के मासूम बच्चों को बिलखता देख सारी दुनिया, सुख, राज भोग छोड़ने वाले व्यक्ति का मासूम मेमनों का ऐसा अन्त देख आवेग में आना स्वाभाविक ही था।
बैरागी का क्रोध् उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा था और गुरु जी शान्त-ध्ीर-गम्भीर पलंग पर बिराजे सब देख रहे थे- गुरुजी बोले, माधेदास क्रोध् छोड़ो, बोलो क्या हो गया है।'' माधेदास कड़कर बोलता है कि मासूमों के खून बहने से मेरा डेरा अपवित्रा हो गया है गुरुजी बोले, संन्यासी, तुझे अपने इस छोटे से डेरे के अपवित्रा होने की चिन्ता है, पर वो जो भारतवर्ष का बड़ा डेरा है, उसमें हजारों बेकसूरों का खून बहने का तुझे कोई दुख नहीं है।''
क्रोध् थम गया। आवाज रुंध् गयी। जैसे एकदम लम्बी तन्द्रा से जागा हो। बस इतना ही बोला पाया महाराज...! गुरुजी बोले, इस भारतवर्ष के बडे डेरे में मुगलों द्वारा हजारों बहिनों का सुहाग लूटा जा रहा है, सरेआम उनकी इज्जत लुट रही है, छोटे-छोटे बच्चों को दीवार में चुना जा रहा है।
अब माधेदास बैरागी अमृतपान कर हाथ में खण्डा लिये ÷बंदासिंह बहादुर' हो गया था, जो राष्ट्र के पुनरुत्थान के लिए हुंकार भर पंजाब की ओर कूच करने को तैयार था। उसके पास थे गुरुजी के दिये पांच तीर, पांच सिख-बाबा बिनोद सिंह, बाबा राहनसिंह, बाबा बाजसिंह, बाबा दयासिंह व भाई रणसिंह। साथ में नगाड़ा, निशानसिंह, बीरसिंह द्वारा गुरुजी के संगतों के लिए हुक्मनामा, गुरुजी का दिया ढेर सारा आशीर्वाद व रगों में पफड़क रहा गर्म खून।

बंदा सिंह बहादुर का अमर बलिदान
मुगलों ने गुरदास नांगल के किलें को चारों ओर से घेर लिया। किले में खालसा फौजे थी। जिनकी संख्या काफी कम थी। सिख बड़ी बहादुरी से लड़े। लेकिन संख्या का बल उनके पक्ष में नहीं था। रसद और असले की कमी के चलते बाबा बंदा सिंह बहादुर और ७०० सिख सिपाही गिरफ्रतार कर लिए गए। बाबा बंदा सिंह बहादुर को लालकिले में गिरफ्रतार करके रखा गया।  अत्याचार किए गए। बाबा बंदा सिंह बहादुर की पत्नी को मौत के घाट उतार दिया गया। उसके बच्चों को आंखों के सामने काट डाला गया और उनके शरीर के छोटे-२ टुकड़ों को बाबा बंदा सिंह बहादुर के मुंह में ठुंसा गया। सिख सिपाहियों को सरेआम मौत की सजा दी गई। बाबा बंदा सिंह बहादुर को एक लोहे के पिंजरे में बंद करके, हाथी पर बैठाकर पूरे दिल्ली शहर में घुमाया गया। अंत में इस्लाम न कबूल करने के कारण काजी ने उन्हें मृत्यु दण्ड दिया।
इस प्रकार बंदा सिंह बहादुर का जीवन क्रांतिकारी विचार ग्रहण करने का जीवन है।

जीवन परिचय
बाबा बन्दा सिंह बहादुर का जन्म कश्मीर स्थित पुंछ जिले के राजौरी क्षेत्र में 1670 ई. तदनुसार विक्रम संवत् 1727, कार्तिक शुक्ल 13 को हुआ था। वह राजपूतों के भारद्वाज गोत्र से सम्बद्ध था और उसका वास्तविक नाम लक्ष्मणदेव था। 15 वर्ष की उम्र में वह जानकीप्रसाद नाम के एक बैरागी का शिष्य हो गया और उसका नाम माधोदास पड़ा। तदन्तर उसने एक अन्य बाबा रामदास बैरागी का शिष्यत्व ग्रहण किया और कुछ समय तक पंचवटी (नासिक) में रहा। वहाँ एक औघड़नाथ से योग की शिक्षा प्राप्त कर वह पूर्व की ओर दक्षिण के नान्देड क्षेत्र को चला गया जहाँ गोदावरी के तट पर उसने एक आश्रम की स्थापना की।
3 सितंबर 1708 ई. को नान्देड में सिक्खों के दसवें गुरु गुरु गोबिन्द सिंह ने इस आश्रम को देखा और उसे सिक्ख बनाकर उसका नाम बन्दासिंह रख दिया। पंजाब में सिक्खों की दारुण यातना तथा गुरु गोबिन्द सिंह के सात और नौ वर्ष के शिशुओं की नृशंस हत्या ने उसे अत्यन्त विचलित कर दिया। गुरु गोबिन्द सिंह के आदेश से ही वह पंजाब आया और सिक्खों के सहयोग से मुगल अधिकारियों को पराजित करने में सफल हुआ। मई, 1710 में उसने सरहिंद को जीत लिया और सतलुज नदी के दक्षिण में सिक्ख राज्य की स्थापना की। उसने खालसा के नाम से शासन भी किया और गुरुओं के नाम के सिक्के चलवाये।
बन्दा सिंह ने अपने राज्य के एक बड़े भाग पर फिर से अधिकार कर लिया और इसे उत्तर-पूर्व तथा पहाड़ी क्षेत्रों की ओर लाहौर और अमृतसर की सीमा तक विस्तृत किया। 1715 ई. के प्रारम्भ में बादशाह फर्रुखसियर की शाही फौज ने अब्दुल समद खाँ के नेतृत्व में उसे गुरुदासपुर जिले के धारीवाल क्षेत्र के निकट गुरुदास नंगल गाँव में कई मास तक घेरे रखा। खाद्य सामग्री के अभाव के कारण उसने 7 दिसम्बर को आत्मसमर्पण कर दिया। फरवरी 1716 को 794 सिक्खों के साथ वह दिल्ली लाया गया जहाँ 5 मार्च से 13 मार्च तक प्रति दिन 100 की संख्या में सिक्खों को फाँसी दी गयी। 9 जून को बादशाह फर्रुखसियर के आदेश से बन्दा सिंह तथा उसके मुख्य सैन्य-अधिकारियों के शरीर काटकर टुकड़े-टुकड़े कर दिये गये।
मरने से पूर्व बन्दा बैरागी ने अति प्राचीन ज़मींदारी प्रथा का अन्त कर दिया था तथा कृषकों को बड़े-बड़े जागीरदारों और जमींदारों की दासता से मुक्त कर दिया था। वह साम्प्रदायिकता की संकीर्ण भावनाओं से परे था। मुसलमानों को राज्य में पूर्ण धार्मिक स्वातन्त्र्य दिया गया था। पाँच हजार मुसलमान भी उसकी सेना में थे। बन्दासिंह ने पूरे राज्य में यह घोषणा कर दी थी कि वह किसी प्रकार भी मुसलमानों को क्षति नहीं पहुँचायेगा और वे सिक्ख सेना में अपनी नमाज़ और खुतवा पढ़ने में पूरी तरह स्वतन्त्र होंगे।

#सुहाग_पर_भारी_पड़ा_राष्ट्र_के_प्रति_कर्तव्य

#सुहाग_पर_भारी_पड़ा_राष्ट्र_के_प्रति_कर्तव्य
 
रावल अखैसिंह की मृत्युपरांत सन १७६२ में रावल मूलराज जैसलमेर की राजगद्दी पर बैठे | उनके शासन काल में उनका प्रधानमंत्री स्वरूपसिंह जैन जो वैश्य जाति का था बहुत भ्रष्ट व स्वेछाचारी था | उसके षड्यंत्रों से सभी सामंत बहुत दुखी व नाराज थे पर प्रधान स्वरूपसिंह जैन ने रावल मूलराज को अपनी मुट्ठी में कर रखा था,रावल मूलराज वही करते जो स्वरूपसिंह कहता,वही देखते जो स्वरूपसिंह दिखाता | स्वरूपसिंह ने शासन व्यवस्था का भी बुरा हाल कर रखा था | उसके कुकृत्यों से जैसलमेर का युवराज रायसिंह भी बहुत अप्रसन्न था | अत: कुछ सामंतो ने युवराज रायसिंह को सलाह दी कि- “स्वरूपसिंह की हत्या ही इसका एक मात्र उपाय है | इसी में जैसलमेर रियासत और प्रजा की भलाई है|”
युवराज इस बात से सहमत हो गए और भरे दरबार में जाकर रावल मूलराज के समीप बैठे प्रधानमंत्री स्वरूपसिंह जैन की तलवार के एक ही वार से हत्या करदी | अकस्मात हुई इस घटना से विचलित और अपनी हत्या के डर से रावल तुरंत उठकर अंत:पुर में चले गए |

दरबार में उपस्थित अन्य सामंतो ने युवराज रायसिंह से रावल मूलराज का भी वध करने का आग्रह किया पर युवराज ने अपने पिता की हत्या को उचित नहीं माना | और इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया | पर इस प्रस्ताव को रखने वाले सामंतों को अब डर सताने लगा कि रावल की हत्या का प्रस्ताव रखने के चलते रावल उन्हें माफ़ नहीं करेंगे सो रावल से नाराज सामंत मण्डली ने युवराज रायसिंह को सिंहासन पर बैठा दिया | रायसिंह ने सामंत अनूपसिंह को अपना प्रधान मंत्री नियुक्त किया और उसकी सलाह पर अपने पिता रावल मूलराज को कैद कर कारावास में बंद कर दिया  और शासन कार्य अपने हाथ में ले लिया|

 
अनूपसिंह ने भी प्रधानमंत्री बनने के बाद अपनी चलाई तीन महीने में ही उसकी अदूरदर्शी नीतियों व भ्रष्ट कार्यों के चलते जैसलमेर राज्य में अव्यवस्था फ़ैल गयी | अनूपसिंह की पत्नी जो राठौड़ों की महेचा शाखा की पुत्री थी को रावल मूलराज को कैद और अपने पति की करतूतों की वजह से राज्य में अशांति ठीक नहीं लगी | वह अपने पति प्रधानमंत्री अनूपसिंह के क्रियाकलापों व रावल को कैद से उद्वेलित थी और रावल को कैद और राज्य में अशांति की वजह अपने पति को मानती थी | उस राठौड़ रमणी माहेची का दृदय देशभक्ति में व्याकुल हो गया | उसने किसी तरह से रावल मूलराज को कैद से आजाद कराकर वापस राजगद्दी पर बैठाने की ठान ली पर उसके इस देशभक्ति से परिपूर्ण कार्य में सबसे बड़ी अड़चन उसका खुद का पति था |

 
उसका मन बहुत उद्वेलित था एक तरफ अपनी मातृभूमि का कल्याण था दूसरी तरफ उसका अपना पति, एक तरफ देश के प्रति कर्तव्य था तो दूसरी तरफ उसका अपना सुहाग , एक तरफ उसके मन में अपने राज्य को अशांति से निजात दिलाने का पवित्र कर्तव्य था तो दूसरी तरफ इस कार्य में रूकावट बने अपने पति की हत्या कर अपना घर अपनी जिन्दगी तबाह कर लेना था |
आखिर सुहाग पर देश भक्ति भारी पड़ी ,प्रणय के आगे कर्तव्य भारी पड़ा और उस राजपूत वीरांगना ने तय कर लिया कि -” अपनी मातृभूमि के प्रति कर्तव्य के बीच में यदि उसका सुहाग आड़े आता है तो उसकी भी हत्या कर देनी चाहिए |” और उस माहेची राठौड़ वीरांगना ने सबसे पहले रावल को कैद से मुक्त कराने में अड़चन बने अपने पति अनूपसिंह की हत्या करवाने की ठान ली |

उस वीरांगना ने अपने पुत्र जोरावरसिंह को बुला कर कहा -” पुत्र तुम्हारे पिता ने जैसलमेर के शासक को बंदी बनाने में अपनी महत्तवपूर्ण भूमिका निभा देशद्रोह का कार्य कर अपने कुल को कलंकित किया है और उस कलंक को अब तुम्हे धोना है अपने देशद्रोही पिता की हत्या कर |”
पुत्र तुम्हे रावल को आजाद कराना है यही तुम्हारा मातृभूमि के प्रति कर्तव्य है और इस कर्तव्यपालन के बीच तुम्हारे पिता सबसे बड़ी अड़चन ,इसलिए सबसे पहले उन्हें ही मार डालो और दुष्ट रायसिंह को राजसिंहासन से उतार दो |”

अपनी वीर माता का कठोर संकल्प सुनकर पुत्र जोरावरसिंह ने अपनी सहमती देते हुए माता के आग्रह पर रावल को कैद से मुक्त कराकर वापस सिंहासन पर आरूढ़ कराने की प्रतिज्ञा की |

पुत्र से प्रतिज्ञा करवाने के बाद उस वीरांगना ने अपने देवर अर्जुनसिंह व बारू के सामंत मेघसिंह को भी बुलाकर रावल मूलराज का उद्धार कर जैसलमेर राज्य को बचाने की प्रतिज्ञा करवाई | जोरावरसिंह ने अपने चाचा अर्जुनसिंह व सामंत मेघसिंह के साथ सेना लेकर कारागार में घुस रावल मूलराज को तीन माह चार दिन की कैद के बाद मुक्त करा दिया और उसे वापस जैसलमेर के राजसिंहासन पर बिठा दिया |
रावल मूलराज ने सिंहासन पर वापस बैठने के बाद अपने पुत्र रायसिंह को देश निकाला दे दिया |

इस तरह एक राजपूत वीरांगना ने राष्ट्र के प्रति कर्तव्य निभाने हेतु देश में अशांति व भ्रष्टाचार फ़ैलाने के उतरदायी अपने पति के खिलाफ कार्यवाही करवा दी|

नोट: चित्र प्रतीकात्मक है|

-ज्ञान दर्पण की कॉपी पोस्ट

#वीर_शिरोमणि_दुर्गादास_जी_राठौड़

#वीर_शिरोमणि_दुर्गादास_जी_राठौड़ 
 
वीर शिरोमणि दुर्गादास जी राठौड़ :  जिसने इस देश का पूर्ण इस्लामीकरण करने की औरंगजेब की साजिश को विफल कर हिन्दू धर्म की रक्षा की थी.....उस महान यौद्धा का नाम है वीर दुर्गादास राठौर... 
समय - सोहलवीं - सतरवी शताब्दी चित्र - वीर शिरोमणि दुर्गा दास  राठौड़ स्थान - मारवाड़ राज्य वीर दुर्गादास राठौड का जन्म मारवाड़ में करनोत ठाकुर आसकरण जी के घर सं. 1695 श्रावन शुक्ला चतुर्दसी को हुआ था। आसकरण जी मारवाड़ राज्य की सेना में जोधपुर नरेश महाराजा जसवंत सिंह जी की सेवा में थे ।अपने पिता की भांति बालक दुर्गादास में भी वीरता कूट कूट कर भरी थी,एक बार जोधपुर राज्य की सेना के ऊंटों को चराते हुए राईके (ऊंटों के चरवाहे) आसकरण जी के खेतों में घुस गए, बालक दुर्गादास के विरोध करने पर भी चरवाहों ने कोई ध्यान नहीं दिया तो वीर युवा दुर्गादास का खून खोल उठा और तलवार निकाल कर झट से ऊंट की गर्दन उड़ा दी,इसकी खबर जब महाराज जसवंत सिंह जी के पास पहुंची तो वे उस वीर बालक को देखने के लिए उतावले हो उठे व अपने सेनिकों को दुर्गादास को लेन का हुक्म दिया ।अपने दरबार में महाराज उस वीर बालक की निडरता व निर्भीकता देख अचंभित रह गए,आस्करण जी ने अपने पुत्र को इतना बड़ा अपराध निर्भीकता से स्वीकारते देखा तो वे सकपका गए। परिचय पूछने पर महाराज को मालूम हुवा की यह आस्करण जी का पुत्र है,तो महाराज ने दुर्गादास को अपने पास बुला कर पीठ थपथपाई और इनाम तलवार भेंट कर अपनी सेना में भर्ती कर लिया।उस समय महाराजा जसवंत सिंह जी दिल्ली के मुग़ल बादशाह औरंगजेब की सेना में प्रधान सेनापति थे,फिर भी औरंगजेब की नियत जोधपुर राज्य के लिए अच्छी नहीं थी और वह हमेशा जोधपुर हड़पने के लिए मौके की तलाश में रहता था ।सं. 1731 में गुजरात में मुग़ल सल्तनत के खिलाफ विद्रोह को दबाने हेतु जसवंत सिंह जी को भेजा गया,इस विद्रोह को दबाने के बाद महाराजा जसवंत सिंह जी काबुल में पठानों के विद्रोह को दबाने हेतु चल दिए और दुर्गादास की सहायता से पठानों का विद्रोह शांत करने के साथ ही वीर गति को प्राप्त हो गए । उस समय उनके कोई पुत्र नहीं था और उनकी दोनों रानियाँ गर्भवती थी,दोनों ने एक एक पुत्र को जनम दिया,एक पुत्र की रास्ते में ही मौत हो गयी और दुसरे पुत्र अजित सिंह को रास्ते का कांटा समझ कर ओरंग्जेब ने अजित सिंह की हत्या की ठान ली,ओरंग्जेब की इस कुनियत को स्वामी भक्त दुर्गादास ने भांप लिया और मुकंदास की सहायता से स्वांग रचाकर अजित सिंह को दिल्ली से निकाल लाये व अजित सिंह की लालन पालन की समुचित व्यवस्था करने के साथ जोधपुर में गदी के लिए होने वाले ओरंग्जेब संचालित षड्यंत्रों के खिलाफ लोहा लेते अपने कर्तव्य पथ पर बदते रहे।अजित सिंह के बड़े होने के बाद गद्दी पर बैठाने तक वीर दुर्गादास को जोधपुर राज्य की एकता व स्वतंत्रता के लिए दर दर की ठोकरें खानी पड़ी,ओरंग्जेब का बल व लालच दुर्गादास को नहीं डिगा सका जोधपुर की आजादी के लिए दुर्गादास ने कोई पच्चीस सालों तक सघर्ष किया,लेकिन जीवन के अन्तिम दिनों में दुर्गादास को मारवाड़ छोड़ना पड़ा । महाराज अजित सिंह के कुछ लोगों ने दुर्गादास के खिलाफ कान भर दिए थे जिससे महाराज दुर्गादास से अनमने रहने लगे वस्तु स्तिथि को भांप कर दुर्गादास ने मारवाड़ राज्य छोड़ना ही उचित समझा ।और वे मारवाड़ छोड़ कर उज्जेन चले गए वही शिप्रा नदी के किनारे उन्होने अपने जीवन के अन्तिम दिन गुजारे व वहीं उनका स्वर्गवास हुवा ।दुर्गादास हमारी आने वाली पिडियों के लिए वीरता, देशप्रेम, बलिदान व स्वामिभक्ति के प्रेरणा व आदर्श बने रहेंगे ।१-मायाड ऐडा पुत जाण, जेड़ा दुर्गादास । भार मुंडासा धामियो, बिन थम्ब आकाश ।२-घर घोड़ों, खग कामनी, हियो हाथ निज मीत सेलां बाटी सेकणी, श्याम धरम रण नीत ।वीर दुर्गादास का निधन 22 नवम्बर, सन् 1718 में हुवा था इनका अन्तिम संस्कार शिप्रा नदी के तट पर किया गया था ।"उनको न मुगलों का धन विचलित कर सका और न ही मुग़ल शक्ति उनके दृढ हृदये को पीछे हटा सकी। वह एक वीर था जिसमे राजपूती साहस व मुग़ल मंत्री सी कूटनीति थी "जिसने इस देश का पूर्ण इस्लामीकरण करने की औरंगजेब की साजिश को विफल कर हिन्दू धर्म की रक्षा की थी.....उस महान यौद्धा का नाम है वीर दुर्गादास राठौर...इसी वीर दुर्गादास राठौर के बारे में रामा जाट ने कहा था कि "धम्मक धम्मक ढोल बाजे दे दे ठोर नगारां की,, जो आसे के घर दुर्गा नहीं होतो,सुन्नत हो जाती सारां की.......आज भी मारवाड़ के गाँवों में लोग वीर दुर्गादास को याद करते है कि“माई ऐहा पूत जण जेहा दुर्गादास, बांध मरुधरा राखियो बिन खंभा आकाश”हिंदुत्व की रक्षा के लिए उनका स्वयं का कथन"रुक बल एण हिन्दू धर्म राखियों"अर्थात हिन्दू धर्म की रक्षा मैंने भाले की नोक से की............इनके बारे में कहा जाता है कि इन्होने सारी उम्र घोड़े की पीठ पर बैठकर बिता दी।अपनी कूटनीति से इन्होने ओरंगजेब के पुत्र अकबर को अपनी और मिलाकर,राजपूताने और महाराष्ट्र की सभी हिन्दू शक्तियों को जोडकर ओरंगजेब की रातो की नींद छीन ली थी।और हिंदुत्व की रक्षा की थी।उनके बारे में इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने कहा था कि ....."उनको न मुगलों का धन विचलित कर सका और न ही मुगलों की शक्ति उनके दृढ निश्चय को पीछे हटा सकी,बल्कि वो ऐसा वीर था जिसमे राजपूती साहस और कूटनीति मिश्रित थी".ये निर्विवाद सत्य है कि अगर उस दौर में वीर दुर्गादास राठौर,छत्रपति शिवाजी,वीर गोकुल,गुरु गोविन्द सिंह,बंदा सिंह बहादुर जैसे शूरवीर पैदा नहीं होते तो पुरे मध्य एशिया,ईरान की तरह भारत का पूर्ण इस्लामीकरण हो जाता और हिन्दू धर्म का नामोनिशान ही मिट जाता............28 नवम्बर 1678 को अफगानिस्तान के जमरूद नामक सैनिक ठिकाने पर जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह का निधन हो गया था उनके निधन के समय उनके साथ रह रही दो रानियाँ गर्भवती थी इसलिए वीर शिरोमणि दुर्गादास सहित जोधपुर राज्य के अन्य सरदारों ने इन रानियों को महाराजा के पार्थिव शरीर के साथ सती होने से रोक लिया | और इन गर्भवती रानियों को सैनिक चौकी से लाहौर ले आया गया जहाँ इन दोनों रानियों ने 19 फरवरी 1679 को एक एक पुत्र को जन्म दिया,बड़े राजकुमार नाम अजीतसिंह व छोटे का दलथंभन रखा गयाये वही वीर दुर्गा दास राठौड़ जो जोधपुर के महाराजा को औरंगज़ेब के चुंगल ले निकल कर लाये थे जब जोधपुर महाराजा अजित सिंह गर्भ में थे उनके पिता की मुर्त्यु हो चुकी थी तब औरंगज़ेब उन्हें अपने संरक्षण में दिल्ली दरबार ले गया था उस वक़्त वीर दुर्गा दास राठौड़ चार सो चुने हुए राजपूत वीरो को लेकर दिल्ली गए और युद्ध में मुगलो को चकमा देकर महाराजा को मारवाड़ ले आये.....उसी समय बलुन्दा के मोहकमसिंह मेड़तिया की रानी बाघेली भी अपनी नवजात शिशु राजकुमारी के साथ दिल्ली में मौजूद थी वह एक छोटे सैनिक दल से हरिद्वार की यात्रा से आते समय दिल्ली में ठहरी हुई थी | उसने राजकुमार अजीतसिंह को बचाने के लिए राजकुमार को अपनी राजकुमारी से बदल लिया और राजकुमार को राजकुमारी के कपड़ों में छिपाकर खिंची मुकंददास व कुंवर हरीसिंह के साथ दिल्ली से निकालकर बलुन्दा ले आई | यह कार्य इतने गोपनीय तरीके से किया गया कि रानी ,दुर्गादास,ठाकुर मोहकम सिंह,खिंची मुकंदास,कु.हरिसिघ के अलावा किसी को कानों कान भनक तक नहीं लगी यही नहीं रानी ने अपनी दासियों तक को इसकी भनक नहीं लगने दी कि राजकुमारी के वेशभूषा में जोधपुर के राजकुमार अजीतसिंह का लालन पालन हो रहा है | 

छ:माह तक रानी राजकुमार को खुद ही अपना दूध पिलाती,नहलाती व कपडे पहनाती ताकि किसी को पता न चले पर एक दिन राजकुमार को कपड़े पहनाते एक दासी ने देख लिया और उसने यह बात दूसरी रानियों को बता दी,अत: अब बलुन्दा का किला राजकुमार की सुरक्षा के लिए उचित न जानकार रानी बाघेली ने मायके जाने का बहाना कर खिंची मुक्न्दास व कु.हरिसिंह की सहायता से राजकुमार को लेकर सिरोही के कालिंद्री गाँव में अपने एक परिचित व निष्टावान जयदेव नामक पुष्करणा ब्रह्मण के घर ले आई व राजकुमार को लालन-पालन के लिए उसे सौंपा जहाँ उसकी (जयदेव)की पत्नी ने अपना दूध पिलाकर जोधपुर के उतराधिकारी राजकुमार को बड़ा किया |((वीर दुर्गादास राठौड़ के सिक्के और पोस्ट स्टाम्प भारत सरकार पहले ही जारी कर चुकी है ))

जय हिन्द
जय राजपूताना .............

#इस_गद्दार_की_वजह_से_करना_पड़ा_था_रानी_पद्मावती_को_जौहर

#इस_गद्दार_की_वजह_से_करना_पड़ा_था_रानी_पद्मावती_को_जौहर
 
अलाउद्दीन खिलजी के चितौड़ पर आक्रमण के बाद चितौड़ दुर्ग में रानी पद्मिनी के नेतृत्व में हजारों की संख्या में महिलाओं को जौहर की धधकती अग्नि में अग्नि स्नान करना पड़ा था| इतिहासकार यह संख्या 13 हजार बतातें है| एक तरफ महिलाओं को अपनी पवित्रता बचाने के लिए जौहर में अग्नि स्नान करना पड़ा, वहीं चितौड़ के वीरों को शाका कर अपने प्राणों का बलिदान करना पड़ा| एक फलता फूलता राज्य बर्बाद हो गया| पर क्या आप जानते है, चितौड़ की इस बर्बादी के पीछे किस गद्दार की गद्दार थी ? इस गद्दार का नाम बहुत कम लोग जानते है, क्योंकि स्थानीय इतिहासकारों ने जानबूझकर उस गद्दार का नाम नहीं लिखा ना ही इतिहास में हमें उस गद्दार के बारे में पढाया जाता है| अपनी इतिहास शोध के बाद आज उस गद्दार के बारे में बता रहे है, सिंह गर्जना पत्रिका के संपादक सचिनसिंह गौड़..

रत्न सिंह के दरबार में एक गुणी संगीतकार था पंडित राघव चेतन। राघव चेतन तंत्र मन्त्र जादू टोना भी करता था। ऐसा भी कहा जाता है कि रत्न सिंह को पद्मावती के बारे में राघव चेतन ने ही बताया था जिसकी परिणीति रत्न सिंह और पद्मावती के विवाह के तौर पर हुई। रानी पद्मावती एक छोटे राज्य की राजकुमारी थी। पद्मिनी की सुंदरता के बारे में बहुत कुछ कहा एवं लिखा गया है। एक कवि ने अतिश्योक्ति में कहा है कि पद्मिनी जब पानी पीती थी तो उसकी सुराहीदार गर्दन से उतरता पानी भी सामने वाले को महसूस होता था।

एक बार राघव चेतन की किसी हरकत से (तंत्र शक्ति का दुरूपयोग करने को लेकर ) रत्न सिंह राघव चेतन से क्रुद्ध हो गये, लेकिन ब्राह्मण होने के कारण उसका वध नहीं किया बल्कि उसका मुँह काला करके गधे पर बिठाकर उसका पूरे राज्य में उसका जुलूस निकाला। रानी पद्मावती ने रत्न सिंह को ऐसा करने से मना किया था, क्योंकि बुद्धिमान पद्मिनी का मानना था कि राघव चेतन राज्य के बारे में सब जानता है और यदि वो किसी शक्तिशाली दुश्मन से मिल गया तो चित्तौड़ के लिये खतरनाक साबित होगा। लेकिन रत्न सिंह ने अपनी रानी की बात नहीं मानी। अपमान की आग में जल रहे ब्राह्मण राघव चेतन ने रत्न सिंह और चित्तौड़ के समूल नाश करने की ठान ली। राघव चेतन दिल्ली आ गया उसे अल्लाउद्दीन खिलजी की ताकत और कामुकता के बारे में पता था।

 
राघव चेतन दिल्ली के पास एक जंगल में रहने लगा जहाँ अल्लाउद्दीन शिकार के लिये जाता था। एक दिन अल्लाउद्दीन के कान में अत्यंत सुरीली बांसुरी की धुन पड़ी। अल्लाउदीन के सैनिकों ने ढूंढा तो राघव चेतन को बांसुरी बजाते हुये पाया। अल्लाउद्दीन ने राघव चेतन के हुनर की प्रशंसा की और अपने दरबार में संगीतकार के तौर पर चलने का आग्रह किया। कुटिल राघव चेतन ने अपनी चाल चली और कहा मुझ जैसे मामूली आदमी का आप क्या करेंगे जबकि विश्व की अनेक सुन्दर वस्तुयें आपके पास नहीं हैं। चकित अल्लाउद्दीन ने पूछा ऐसी कौन सी चीज है। राघव चेतन ने तपाक से रानी पद्मावती की सुंदरता का विवरण कामुक सुल्तान के सामने कर दिया। उस दिन से अल्लाउद्दीन पद्मावती को पाने के सपने देखने लगा। यह भी कहा जाता है कि जब कई महीनों तक मेवाड़ के बाहर घेरा डाले डाले अल्लाउद्दीन खीज गया था| तब राघव चेतन ने उसे सुझाव दिया था कि आप रत्न सिंह को सन्देश भिजवाइये कि आप पद्मिनी को अपनी बहिन मानते हैं और एक बार उसके दर्शन करना चाहते हैं रत्न सिंह तुरंत तैयार हो जायेगा और हुआ भी ऐसा ही। असल में पद्मावती के जौहर और चित्तौड़ के अनेकों राजपूत सरदारों की मृत्यु का जिम्मेदार पंडित राघव चेतन था जिसका इतिहास में कोई जिक्र नहीं है और वर्तमान राजपूत भी इससे अनभिज्ञ हैं

#युद्ध_भूमि_में_अमल_की_मनुहार_और_दो_विरोधी_बन_गए_रिश्तेदार

#युद्ध_भूमि_में_अमल_की_मनुहार_और_दो_विरोधी_बन_गए_रिश्तेदार
 
 
राजस्थान का इतिहास भी ऐसी ऐसी विचित्र घटनाओं व कहानियों से भरा पड़ा है, जो यहाँ के वीरों के ऊँचे चरित्र से रूबरू करवाता है| ऐसी घटनाएँ राजस्थान के इतिहास में ही मिल सकती है कि दो पक्षों में युद्ध हो रहा हो, और शाम को युद्ध बंद होने के बाद विरोधी योद्धा एक साथ बैठकर भोजन कर रहे हों, या कोई वीर युद्ध में घायल विरोधी के हालचाल पूछ रहा हो और उसे दर्द से राहत दिलवाने के लिए अमल मुहैया करवा रहा हो|  ऐसी एक घटना वि.सं. 1689-90 में घटी, जिसमें दो योद्धा आमने सामने थे, एक ने दूसरे के पास पहुँच अमल की मनुहार की और दोनों में मित्रता हो गई, युद्ध बंद हो गया और दोनों दुश्मन से मित्र और मित्र से आगे बढ़कर रिश्तेदार बन गए|

हम बात कर रहे जोधपुर के सबसे शक्तिशाली राजा राव मालदेव व शेखावाटी के शासक राव रायमल के रिश्तों की|  वि.सं. 1689-90 के मध्य राव मालदेव ने मारोठ के गौड़ राजपूतों पर आक्रमण किया| चूँकि गौड़ राजपूत राव रायमल के सम्बन्धी थे अत: राव रायमल गौड़ों की सहायता के लिए आये| दोनों पक्षों के मध्य युद्ध के नंगारे बज उठे, युद्ध शुरू हुआ, वीरों की तलवारें आपस में टकराने लगी| राव रायमल भी अपने सैनिकों के साथ युद्ध भूमि में तलवार चला रहे थे| राव रायमल अपनी तलवार के जौहर दिखालते हुए राव मालदेव के पास जा पहुंचे और अपने विरोधी पर तलवार का वार करने से पहले उन्हें अमल की मनुहार की|
राव मालदेव एक विरोधी वीर द्वरा इस तरह सम्मान पूर्वक अमल की मनुहार पाकर गदगद हो गए| उन्होंने शेखावाटी के शासक वीर राव रायमल को पहचान लिया और घोड़े से उतर राव रायमल के गले मिले| यह दृश्य देख युद्ध कर सैनिकों की तलवारें अपने आप म्यानों में चली गई | “युद्ध बंद हो गया और दोनों में मित्रता हो गई|” 1  यही नहीं यह मित्रता आगे बढ़ी और रिश्तेदारी में बदल में गई| राव मालदेव ने अपनी पुत्री हंसाबाई की सगाई राव रायमल के पौत्र लूणकर्ण के साथ कर दी|
इस तरह इस अमल की मनुहार ने दो सेनाओं को युद्ध में एक दूसरे का कत्लेआम करने से रोक दिया, गौड़ राजपूतों के राज्य मारोठ को तबाह होने से रोक दिया और दुश्मनों को आपसी रिश्तेदारी की मजबूत डोर से बाँध दिया|

सन्दर्भ :
जयपुर व अलवर का इतिहास – गहलोत, शेखावाटी प्रकास खंड-१
शेखावाटी प्रदेश का राजनैतिक इतिहास; रघुनाथसिंह कालीपहाड़ी

#एक #क्षत्राणी #जिसने #मारवाड़ #की #सेना #को #पीछे #हटने #पर #मजबूर #कर #दिया #था

#एक #क्षत्राणी #जिसने #मारवाड़ #की #सेना #को #पीछे #हटने #पर #मजबूर #कर #दिया #था

राजस्थान में चारण कवियों ने हर घटना पर अपनी कलम चलाई और गीतों, सोरठों, दोहों, छप्प्यों के माध्यम से उस घटना का इतिहास संजोने का महत्त्वपूर्ण काम किया| अक्सर आधुनिक विद्वान उनकी रचनाओं में किये वर्णन को अतिश्योक्ति मानते है, उनका यह दावा कुछ हद तक सही भी हो सकता है फिर यदि हम उन रचनाओं में वर्णित अतिश्योक्ति वर्णन को छोड़ भी दे तब भी चारण कवियों की रचनाओं में वर्णित इतिहास को नकारा नहीं जा सकता|

तत्कालीन मारवाड़ राज्य के एक कवि लक्ष्मीदान ने अपने एक गीत के माध्यम से मारवाड़ के नांणा ठिकाने की एक क्षत्राणी के वीरतापूर्वक किये कार्य को उजागर कर उसे इतिहास के पन्नों पर दर्ज किया| यदि इस घटना का वर्णन कवि नहीं करता तो इतिहास में भारतीय नारी शक्ति के इस वीर रूप से शायद ही हमारा परिचय होता|

मारवाड़ राज्य के मुसाहिब आला और मारवाड़ के कई महाराजाओं के संरक्षक रहे सर प्रताप ने एक आदेश जारी कर नांणा ठिकाने के कुछ गांव बेड़ा ठिकाने में मिला दिए थे| उनके इस आदेश का तत्कालीन नांणा ठिकाने के ठाकुर ने विरोध किया तो सर प्रताप ने उन्हें दबाने के लिए जोधपुर से सेना भेज दी| ठिकाने के ठाकुर व कुंवर राज्य की शक्तिशाली सेना का मुकाबला करने में समर्थ नहीं थे, सो अपनी गिरफ्तारी से बचने के लिए उन्होंने अपना किला छोड़ दिया| लेकिन कुंवरानी अगरकुंवरी को उनका इस तरह किला छोड़ना रास नहीं आया और वे स्वयं तलवार लेकर मारवाड़ राज्य की सेना के सन्मुख आ डटी| कुंवरानी के कड़े प्रतिरोध के कारण आखिर राज्य की फ़ौज को वहां से हटना पड़ा| इस तरह मारवाड़ की शक्तिशाली फ़ौज का साहसपूर्वक सामना कर उस वीर क्षत्राणी ने अपने साहस, शौर्य और वीरता का परिचय दिया| 

कुंवरानी की वीरता का तत्कालीन कवि लक्ष्मीदान ने एक गीत के माध्यम से इस तरह वर्णन किया-

हुवौ कूच चिमनेस यूं अदब राखै हुकम, भड़ां काचां कितां प्राण भागा।
देख फौजां डंमर दुरंग छोड़े दिए, जोधहर न छांडी दुरंग जागां।।
फौज निज आव घर राड़ लेवण फबी, छकाया गोळियां घाल छेटी।
मात राखी फतै लड़ी चढ़ मोरचां, बाप घर देखियो समर बेटी।।
करण अखियात कुळ चाल भूले किसूं, थेट सूं चौगाण विरद थावै।
उभै पख उजळी रांण घर उजाळग, जकी गढ़ छोड़ किण रीत जावै।।
अघट बळ देख भेचक भगा आदमी, सुसर पिव भगा गा सुभट सगरी। 
जुध समै कायरां प्राण मुड़िया जठै, उठै पग रोपिया कमध अगरी।। 
तोल तरवारियां कह्यो समरथ तणी, धूंकलां करण जर सबर धारो। 
पालटै नोज भुरजाळ ऊभां पगां, मरूं पण न द्यूं भुरजाल म्हारो।। 
संक मन धरुं तो साख मिटे सूरमाँ, खलां दळ विभाडूं जोस खाथे।
काट लागै मने कोट खाली कियां, मरे रण खेत रहूं कोट माथै। 

चित्र प्रतीकात्मक है

जालोर रौ इतिहास

"#राई_रा_भाव_राते_बीत_ग्या"

"राई दे दो सा...राई
आज आधी रात तक मुँह मांग्या दाम है सा
राई दे दो सा... राई"

घुड़सवार नगाड़े पीटते हुए जालोर के बाजार की गलियों में घूम रहे थे। 

लोग अचंभित थे लेकिन राई के मुँह मांगे दाम मिल रहे थे इसलिए किसी ने इस बात पर गौर करना उचित नही समझा कि आखिर एकाएक राई के मुँह मांगे दाम क्यों मिल रहे हैं।

शाम होते होते लगभग शहर के हर घर में पड़ी राई घुड़सवारों ने खरीद ली थी। 

अगली सुबह सूरज की पहली किरण के साथ ही दुर्ग से अग्नि-ज्वाला की लपटें उठती देख लोगों को अंदेशा हो गया था कि आज का दिन जालोर के इतिहास के पन्नों में जरूर सुनहरे अक्षरों में लिखा जाने वाला है या जालोर की प्रजा के लिए काला दिवस साबित होने वाला है।

प्रातः दासी ने थाली में गेंहू पीसने से पहले साफ करने के लिए थाली में लिए ही थे कि अचानक थाली में पड़े गेँहू में हलचल हुई। फर्श पर पड़ी गेंहू से भरी थाली में कम्पन्न होने लगी। 
दासी को किसी भारी अनिष्ट की शंका हुई। दासी दौड़ती हुई राजा कान्हड़देव के पास गई और थाली  में कम्पन्न वाली बात बताई। 

कान्हड़देव को अहसास हो गया कि हो न हो किसी भेदी ने दुर्ग की दीवार के कमजोर हिस्से की जानकारी दुश्मन को दे दी हैं। 

दुर्ग का निर्माण करते समय दीवार का एक कोना शेष रह गया था तभी संदेश मिल गया था कि बादशाह अलाउद्दीन खिलजी की सेना दिल्ली से जालोर पर कब्जा करने कुच कर चुकी है अतः आनन फानन में उस शेष बचे हिस्से को मिट्टी और गोबर से लीप कर बना दिया था। यह जानकारी मात्र गिने चुने विश्वासपात्र लोगों को ही थी। 

औरंगजेब की सेना कई महीनों से जालोर दुर्ग को घेर कर बैठी थी लेकिन दुर्ग की दीवार को भेदना असंभव था। सेना इसी आस में बैठी थी कि आखिर जब किले में राशन पानी खत्म हो जाएगा तब राजपूत शाका जरूर करेंगे। तभी किसी भेदी ने जा कर सेनापति को उस दीवार के कच्चे भाग की जानकारी दे दी थी। भेदी को यह तो पता था कि किले की दीवार का एक हिस्सा कच्चा है लेकिन कौनसा यह पता नही था। 
मुगल सेनापति ने कयास लगाया क्यों न पूरी दीवार पर पानी छिड़क कर राई डाल दी जाये ताकि सुबह तक जो भाग कच्ची मिट्टी और गोबर से बना होगा वहां राई अंकुरित हो जाएगी और हमे पता चल जाएगा कि कौनसा हिस्सा कमजोर है। 

कान्हड़देव ने दरबार लगाया, क्षत्राणियों को भी संदेश पहुंचाया गया कि आज मर्यादा की बलिवेदी प्राणों की आहुति मांग रही है। 
*चेत मानखा दिन आया ,रणभेरी आज बजावाला आया*
*उठो आज पसवाडो फेरो, सुता सिंह जगावाला  आया*

रानीमहल में जौहर की तैयारियां शुरू हुई। इधर क्षत्राणियां सोलह श्रृंगार कर सज-धज कर अपनी मर्यादा की बलिवेदी पर अग्निकुंड में स्नान हेतु तैयार थी, उधर रणबांकुरे केसरिया पहन शाके के लिए तैयार खड़े थे। 

दिन चढ़ने तक पूरा दुर्ग जय भवानी के नारों से गूंज रहा था। इधर क्षत्राणियां एक एक कार अग्निस्नान हेतु जौहर कुंड में कूद रही थी उधर रणबांकुरे मुगलों पर टूट पड़े और गाजर मूली की तरह काटने लगे। 
नरमुंड इस तरह कट कर गिर रहे थे जैसे सब्जियां काटी जा रही हो। 

*जोहर री जागी आग अठै,* 
 *रळ मिलग्या राग विराग अठै*
 *तलवार उगी रण खेतां में।*
*इतिहास मंडयोड़ा रेता में ।।*

मुट्ठीभर रणबांकुरे हजारों की सेना  के आगे कब तक टिक पाते।

पिता-पुत्र कान्हड़देव-विरमदेव की जोड़ी जैसे साक्षात महाकाल रणभूमि में तांडव कर रहे हो तभी अचानक पीठ पीछे से वार कर विरमदेव का सिर धड़ से अलग। 
युद्ध मे साथ आई मुगल दासी ने विरमदेव का सिर थाली में लिया और ससम्मान दिल्ली के लिए रवाना हो गई ताकि अलाउद्दीन खिलजी की पुत्री फिरोजा को दिए वचन को पूरा कर सके। 
सोनगरा का सिर दासी की गोद मे और धड़ रणभूमि में कोहराम मचा रहा था। 

दिन ढलते ढलते सभी क्षत्रिय रणबांकुरे मातृभूमि के काम आ चुके थे। लेकिन विरमदेव का धड़ अभी भी कोहराम मचा रहा था।

*#आभ_फटे_धर_उलटे_कटे_बगत_रा_कोर*
*#शीश_कटे_धड़_तड़फड़े_जद_छुटे_जालोर* 

 तभी किसी ने कहा धड़ को अशुद्ध करो, सेनापति ने सोनगरा के धड़ पर अशुद्ध जल के छींटे डाले और धड़ शांत हो गया।

मुगलों ने दुर्ग तो विजय कर लिया था लेकिन चारों तरफ लाशों और नरमुण्डों के ढेर पड़े थे। दुर्ग की नालियों में पानी की जगह खून बह रहा था। 
वीरान दुर्ग सोनगरा के बलिदान पर आज भी गर्व से सीना तान खड़ा हैं। 

शाम के सन्नाटे में एक लालची सेठ अपनी राई बेचने निकला "राई ले ल्यो रे राई"

पास से गुजरते सिपाही को पूछा "भाई आज राई नही खरीदोगे"

सिपाही ने जवाब दिया

*"राई रा भाव राते ई बीत ग्या भाया"*

उधर विरमदेव का सिर लिए दासी दिल्ली स्थित फिरोजा के महल पहुँची और शहजादी के समक्ष थाली में सजा सोनगरा का सिर रखा। 
फिरोजा ने जैसे ही थाल में सजे सोनगरा के सिर से औछार (थाल ढकने का वस्त्र) हटाया, सोनगरा का स्वाभिमानी सिर उल्टा घूम गया। फिरोजा ने अंतिम निवेदन करते हुए कहा
*"#तज_तुरकाणी_चाल_हिन्दुआणि_हुई_हमें,*
*#म्हारा_भो_भो_रा_भरतार_शीश_न_धुण_सोनगरा"*

*#जग_जाणी_रे_शूरमा_मुछा_तणी_आवत,
*#रमणी_रमता_रम_रमी_झुकिया_नही_चौहान"

सिख धर्म में राजपूतों का योगदान

सिख धर्म में राजपूतों का योगदानः-
(1)बाबा बंदा सिंह बहादुर मिन्हास
  (एक राजपूत वीर की जिसने प्रथम सिख साम्राज्य की नीव रखी).
(2)सरदार बाज सिंह पंवार 
     (खालसा राज के पहिले राज्यपाल)
(3)भाई महा सिंह पंवार
     (Brother of Shaheed Bhai Mani Singh , Diwan of the Tenth guru and Jathedar of Amritsar during tenth guru and among 40 mukte)
(4)सरदार बजजर सिंह राठौड़
(गुरू गोविंद सिंह जी के शास्त्रविद्या के उसताद) 
(5) भिखा देवी राठौड़
     (सिख महिलाओं की शास्त्रविद्या की             उसताद) 
(6)आलम सिंह चौहान नचणा
(गुरू गोविंद सिंह जी के प्यारे सिख योधा) 
(7)बाबा बचितर सिंह पंनार
 (मदमस्त हाथी का मुकाबला)
(8)गुलाब सिंह राठौड़ 
    (दलेवलीया मिसल के सरदार) 
(9)भाई मनी सिंह जी परमार
    (महान शहीद)
(10)अकाली फूला सिंह राजपूत 
यह थे कुछ यौधा इसके इलावा और भी हजारों राजपूत शहीद हैं,जिनसे सिख इतिहास भरा पडा है |

#हम_राजपूतों_से_इतनी_नफरत_क्यूं ?

गुलाल फिल्म की कहानी का बेस आजादी बाद की इन्हीं घटनाओं आधार पर रचा गया...
जोधपुर महाराजा हनवंत सिंह ने सरदार वल्लभ भाई पटेल के सैकेट्री के सिर पे पिस्तौल रख के कहा था, कि देख मेरी जोधपुर की प्रजा साथ धोखा मत करना.. इन्होने 
सबके साथ धोखा किया.. 

राजपूत राजा महाराजाओं से इन लोकतंत्रियों की इतनी नफरत क्यों ?
इनकी छवि गिराने सहित अनेकों षडयंत्र क्यों ?

आजादी के बाद देश के सभी राजनैतिक दलों द्वारा सामंतवाद और देशी रियासतों के राजाओं को कोसना फैशन के समान रहा है| जिसे देखो मंच पर माइक हाथ में आते ही मुद्दे की बात छोड़ राजाओं को कोसने में थूक उछालकर अपने आपको गौरान्वित महसूस करता है| इस तरह नयी पीढ़ी के दिमाग में देशी राजाओं के प्रति इन दुष्प्रचारी नेताओं ने एक तरह की नफरत भर दी कि राजा शोषक थे, प्रजा के हितों की उन्हें कतई परवाह नहीं थी, वे अय्यास थे आदि आदि|
लेकिन क्या वाकई ऐसा था? या कांग्रेसी नेता राजाओं की जनता के मन बैठी लोकप्रियता के खौफ के मारे दुष्प्रचार कर उनका मात्र चरित्र हनन करते थे?
यदि राजा वाकई शोषक होते तो, वे जनता में इतने लोकप्रिय क्यों होते ? कांग्रेस को क्या जरुरत थी राजाओं को चुनाव लड़ने से रोकने की ? यह राजाओं की लोकप्रियता का डर ही था कि 1952 के पहले चुनावों में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने राजाओं को चुनावी प्रक्रिया से दूर रखने के लिए स्पष्ट चेतावनी वाला व्यक्तव्य दिया कि – यदि राजा चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ खड़े हुए तो उन्हें अपने प्रिवीपर्स (हाथखर्च) और विशेषाधिकारों से हाथ धोना पड़ेगा|

यह धमकी भरा व्यक्तव्य साफ़ करता है कि राजा जनमानस में लोकप्रिय थे और नेहरु को डर सता रहा था कि राजाओं के सामने उसे बुरी तरह हार का सामना करना पड़ेगा और हुआ भी यही| जोधपुर के महाराजा हनवंत सिंह जी ने उस चुनाव में राजस्थान के 35 स्थानों पर अपने समर्थित प्रत्याशी विधानसभा चुनाव में उतारे जिनमें से 31 उम्मीदवार जीते| मारवाड़ संभाग में सिर्फ चार सीटों पर कांग्रेस जीत पाई| यह जोधपुर के महाराजा की लोकप्रियता व जनता से जुड़ाव का नतीजा ही था कि सत्तारूढ़ कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री जयनारायण व्यास जो कथित रूप से जनप्रिय थे, जिनके नाम से आज भी जोधपुर में कई भवन, विश्वविद्यालय आदि कांग्रेस ने बनवाये, कांग्रेस की पूरी ताकत, राज्य के सभी प्रशासनिक संसाधन महाराजा के खिलाफ झोंकने के बावजूद सरदारपूरा विधानसभा क्षेत्र से बुरी तरह हारे| उस चुनाव में महाराजा के आगे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आरुढ़ जयनारायण व्यास को मात्र 3159 मत मिले थे| यही नहीं व्यास जी ने डर के मारे आहोर विधानसभा क्षेत्र से भी चुनाव लड़ा, जहाँ महाराजा ने एक जागीरदार को उतारा, वहां भी व्यास जी नहीं जीत पाये| उसी वक्त लोकसभा चुनाव में भी महाराजा के आगे कांग्रेस को मात्र 38077 मत मिले जबकि महाराजा को 1,39,833 मत मिले|

उक्त चुनाव परिणाम साबित करते है कि देशी राजाओं व प्रजा के बीच कोई मतभेद नहीं था| झूंठे आरोपों के अनुरूप यदि राजा प्रजा के शोषक होते तो प्रजा के दिल में उनके प्रति इतना प्यार कदापि नहीं होता|

ऐसे में राजाओं के आलोचक एक बात कहकर अपने दिल को शांत कर सकते है कि राजाओं के पास साधन थे अत: वे चुनावों में भारी पड़े, लेकिन जो दल लोकप्रिय होता है और जनता जिसके पीछे होती है उसे चुनावों में साधनों की जरुरत नहीं होती| भैरोंसिंह जी के पास उस चुनाव में पैदल घुमने के अलावा कोई चारा नहीं था फिर भी वे बिना धन, बिना साधन विधानसभा में पहुंचे थे| केजरीवाल की पार्टी भी इसका ताजा उदाहरण है कि जनता जिसके पीछे हो उसे किसी साधन व धन की जरुरत नहीं पड़ती|

अत: साफ़ है कि राजाओं के खिलाफ शोषण का आरोप निराधार झूंठ है और मात्र उन्हें चुनावी प्रक्रिया से दूर रखने का षड्यंत्र मात्र था|

नेहरु के उक्त धमकी भरे वक्तव्य का जबाब जोधपुर महाराजा ने निडरता से इस तरह दिया जो 7 दिसंबर,1951 के अंग्रेजी दैनिक “हिंदुस्तान-टाइम्स” में छपा –
“राजाओं के राजनीति में भाग लेने पर रोक टोक नहीं है| नरेशों को उन्हें दिए गए विशेषाधिकारों की रक्षा के लिए हायतौबा करने की क्या जरुरत है? जब रियासतें ही भारत के मानचित्र से मिटा दी गई, तो थोथे विशेषाधिकार केवल बच्चों के खिलौनों सा दिखावा है| सामन्ती शासन का युग समाप्त हो जाने के बाद आज स्वतंत्र भारत में भूतपूर्व नरेशों के सामने एक ही रास्ता है कि वे जनसाधारण की कोटि तक उठने की कोशिश करें| एक निरर्थक आभूषण के रूप में जीवन बिताने की अपेक्षा उनके लिए यह कहीं ज्यादा अच्छा होगा कि राष्ट्र की जीवनधारा के साथ चलते हुए सच्चे अर्थ में जनसेवक और उसी आधार पर अपने बल की नींव डाले|
दिखने के यह विरोधाभास सा लग सकता है, लेकिन सत्य वास्तव में यही है कि क्या पुराने युग में और क्या वर्तमान जनतंत्र के युग में, सत्ता और शक्ति का आधार जनसाधारण ही रहा है| समय का तकाजा है कि राजा लोग ऊपर शान-बान की सूखी व निर्जीव खाल को हटायें और उसके स्थान पर जनता से सीधा सम्पर्क स्थापित करके मुर्दा खाल में प्राणों में संचार करें| उन्हें याद रखना चाहिए कि जनता में ही शक्ति का स्त्रोत निहित है, नेतृत्व और विशेषाधिकार जनता से ही प्राप्त हो सकते है| मैं अपने विषय में निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि मुझे जनसाधारण का जीवन बिताने में गर्व है|”

और अपने इस वक्तव्य में जोधपुर महाराजा ने जनता के सामने अपने बहुआयामी व्यक्तित्व की छाप छोड़ी| वे चुनाव में उतरे, जनता को उन्होंने एक ही भरोसा दिलाया – “म्है थां सूं दूर नहीं हूँ” (मैं आप लोगों से दूर नहीं हूँ)|

इस नारे ने अपने लोकप्रिय राजा को जनता के और पास ला खड़ा किया और मारवाड़ में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ कर दिया| पर अफ़सोस चुनाव परिणाम आने से पहले ही महाराजा हनुवंत सिंह विमान दुर्घटना के शिकार हो गए और भ्रष्ट व छद्म व्यक्तित्त्व वाले नेताओं को चुनौती देने वाला नरपुंगव इस धरती से हमेशा के लिए विदा हो गया|

गुलाल फिल्म के संवाद में डुकी बन्ना जोधपुर महाराजा का जिक्र भी करते हैं, 
कि- जोधपुर महाराजा ने सरदार वल्लभ भाई पटेल के सेकेट्री के सिर पे पिस्तौल रख कहा था, 
कि, देख हमारी जोधपुर की प्रजा के साथ धोखा मत करना, पर इन्होने सबके साथ धोखा किया ...

सरदार पटेल नहीं, सरदार पटेल का सैकेट्री मेनन हरामी था... जोधपुर महाराजा का जिन्ना साथ बातचीत में पाकिस्तान साथ विलय करने की तैयारी करना, एक मनगढंत कहानी है,  हम राजपूतों के विरुद्ध हरामी लोगों का यह भी बदनामी करने का एक षड़यंत्र है| 
जिसका खुलासा बतौर सबूतों के साथ प्रो एल एस राठौड़ साहब ने अपनी अंग्रेजी में लिखित पुस्तक में किया है...

#रियासत_कालीन_आम_राजपूत_की_जिंदगी

एक आम राजपूत जिसने रजवाड़ो की आन बान शान के लिए अपनी पूरी जिंदगी लूटा दी लेकिन रजवाड़ो से जिस सम्मान की वो अपेक्षा  करता था नहीं मिलने पर उसका मन द्रवित हो उठता है और इस पीड़ से उसके मन में कुछ भाव और विचार उभरते है और वो उसे शब्दों के माध्यम से व्यक्त करने की छोटी सी कोशिस करता है।

ना रजवाड़ा में जन्म लियो,

ना ही गढ़ रो राज।

दरबारां री धोख मारां

जद मिळ है दो मण अनाज।।

राज करणिया राज करयो,

म्हे तो चौकीदार।

रण लड़ता रै शीश चढ़ाता,

साथण ही तरवार।।

साथण ही तरवार,

राजा री शान बचावण नै।

बै जनम्या  कूबद कमावण नै

म्हे जनम्या रण में खून बहावण नै।।

म्हे जनम्या रण में खून बहावण नै

बै जनम्या राज रो काज चलावण नै।

म्हे जनम्या हुकुम निभावण नै

बै जनम्या हुकुम सुणावण नै।।

बै जनम्या सोना रा थाळ में खावण नै

म्हे जनम्या सुखा टूक चबावण नै।

बै जनम्या फूला री सेज सजावण नै

म्हे जनम्या रातां री नींद जगावण नै।।

बै जनम्या मद रै रास रचावण नै

म्हे जनम्या रजवाड़ी लाज बचावण नै।

बै जनम्या खुद रो नाम कारावण नै

म्हे जनम्या कौम रो मान कमावण नै।।

जन्मभोम रै मान रे खातर

खुद रो खून बहायो है।

बाँ नै अमर राखबा खातर

मन्न थे बिसरायो है।।

मेरो खून रो मोल छिपायो

रजवाड़ा नै अमर बणायो है।

भुल्या सूं भी याद करो ना

फण बांका थान चिणायो है।।

टूटयोड़ो सो मेरो झुपड़ो

थां सूं अर्ज लगाई है।

रजवाड़ा में धोख मराणियो

मैं काईं करी खोटी कमाई है।।

- लक्ष्मण सिंह चौराऊ

#इन_वीरों_ने_तोड़ा_था_आगरा_किले_का_सुरक्षा_घेरा

आगरा का किला भारत का सबसे महत्वपूर्ण किला है। इस किले को सबसे ज्यादा सुरक्षित, सुविधाजनक व महफूज मानते हुए भारत के मुगल सम्राट बाबर, हुमायुं, अकबर, जहांगीर, शाहजहां व औरंगजेब यहां रहा करते थे, व यहीं से पूरे भारत पर शासन किया करते थे। यहां राज्य का सर्वाधिक खजाना, सम्पत्ति व टकसाल थी। यहाँ विदेशी राजदूत, यात्री व उच्च पदस्थ लोगों का आना जाना लगा रहता था, जिन्होंने भारत का इतिहास रचा। लेकिन क्या आप जानते है कि आगरा जैसे सुरक्षित किले की सुरक्षा को भारत के वीरों ने चुनौती दी और इसकी सुरक्षा व्यवस्था को ठेंगा दिखाया।

जी हाँ ! हम बात कर रहे है उन भारतीय वीरों की जिन्हें आगरा का यह अति-सुरक्षित किला रोक नहीं पाया और उन वीरों ने अकेले या कुछ साथियों के साथ इस किले की सुरक्षा को धत्ता बता दिया था।

नागौर के राव अमरसिंह राठौड़ की वीरता से प्रभावित होकर बादशाह शाहजहाँ ने उन्हें राव का खिताब व नागौर का परगना देकर अपने पास रखा था। हाथी की चराई पर बादशाह की और से कर लगता था, जो अमर सिंह ने देने से साफ मना कर दिया था। सलावतखां द्वारा इसका तकाजा करने व अमर सिंह को कुछ उपशब्द बोलने पर स्वाभिमानी अमर सिंह ने बादशाह शाहजहाँ के सामने ही सलावतखां का वध कर दिया और खुद भी मुगल सैनिकों के हाथों लड़ते हुए किले में मारे गए। तब राव अमरसिंह राठौड़ का पार्थिव शव लाने के उद्देश्य से उनका सहयोगी बल्लू चांपावत आगरा किले में गया। मुगल सुरक्षा के बीच रखे अमरसिंह का शव घोड़े पर रखकर बल्लू चाम्पावत ने घोड़े को ऐड लगा दी। घोड़े सहित आगरा दुर्ग के पट्ठे पर जा चढा और दुसरे क्षण वहां से नीचे की और छलांग मार गया। मुगल सैनिक ये सब देख भौचंके रह गए। इस तरह वीर बल्लू चाम्पावत ने इस सुरक्षित किले की सुरक्षा व्यवस्था को अकेले ही धत्ता बता दिया।

ठीक इसी तरह वर्ष 1903 ई. में जब आगरा का किला अंग्रेजों के अधीन था, तब भी राजस्थान के वीरों ने इसकी सुरक्षा व्यवस्था को तोड़कर राजस्थान के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी डूंगजी (डूंगरसिंह शेखावत) को कैद से छुड़ा लिया था। डूंगजी को अंग्रेजों ने धोखे से पकड़ कर आगरा किले में कैद कर दिया। तब उनके साथी लोटिया जाट व सांवता मीणा ने वेश बदलकर किले की रैकी की। उनके द्वारा जुटाई सूचनाओं के आधार पर जवाहरसिंह ने अपने क्रान्तिकारी साथियों के साथ आगरा जैसे सुदृढ़ किले की सुरक्षा में सेंध लगाकर डूंगजी को कैद से छुड़ा लिया। इस कार्य में लोठूराम निठारवाल जो राजस्थानी साहित्य में लोटिया जाट के नाम से प्रसिद्ध है ने व सांवता मीणा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और कई वीर राजपूत शहीद भी हो गए थे|

इस तरह मुगल काल में बल्लू चाम्पावत व अंग्रेजी शासन में जवाहरसिंह शेखावत ने अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ इस अति सुरक्षित किले की सुरक्षा व्यवस्था को तोड़ डाला था।

मेवाड़ की धरा व महाराणा प्रताप के लिए गाड़ियां लोहारौ का त्याग, समर्पण व बलिदान

#सैंकड़ों_साल_बाद_भी_गाड़िया_लोहार_निभा_रहे_हैं_महाराणा_प्रताप_से_किया_वादा●●●

महाराणा की सेना में शामिल गाड़िया लोहारों ने प्रण लिया कि जब तक मेवाड़ मुगलों से आजाद नहीं हो जाता और महाराणा गद्दी पर नहीं बैठते, तब तक हम कहीं भी अपना घर नहीं बनाएंगे।
जिनका होता है गाड़ी में घर, वो कहलाते हैं गाड़िया लोहार. बैलगाड़ी इनका घर है और लोहारी इनका पेशा, इसीलिए इनको 'गाड़िया लोहार' के नाम से जाना जाता है. इतिहास प्रसिद्ध गाड़िया लोहार महाराणा प्रताप की सेना के साथ कंधे से कंधे मिलाकर चले थे. प्रताप की सेना के लिए घोड़ों की नाल, तलवार और अन्य हथियार बनाते थे. आज वे दर-दर की ठोकरें खाते हुए एक घुमक्कड़ जिन्दगी बिता रहे हैं.
मेवाड़ में महाराणा प्रताप ने जब मुगलों से लोहा लिया और मेवाड़ मुगलों के कब्जे में आ गया. महाराणा की सेना में शामिल गाड़िया लोहारों ने प्रण लिया कि जब तक मेवाड़ मुगलों से आजाद नहीं हो जाता और महाराणा गद्दी पर नहीं बैठते, तब तक हम कहीं भी अपना घर नहीं बनाएंगे और अपनी मातृभूमि पर नहीं लौटेंगे. तब से आज तक अपने प्रण का पालन करते हुए गाड़िया लोहार चितौड़ दुर्ग पर नहीं चढ़े हैं. 
मेवाड़ भी आजाद हो गया और देश भी, लेकिन ये गाड़िया लोहार आज भी अपने उसी प्रण पर अडिग होकर न तो अपनी मातृभूमि पर लौटे और न ही अपने घर बनाए. भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने गाड़िया लोहार का प्रण तुड़वाने के लिए एक अभियान शुरू किया था, तब कुछ गाड़िया लोहार ने चितौड़ में अपने घर बसाए थे, लेकिन अधिकांश अपने प्रण पर आज भी कायम हैं. सरकार ने भी इन्हें बसाने की कई योजनाएं बनाईं, लेकिन पूरी तरह कारगर साबित नहीं हुई.
घुमक्कड़ जिन्दगी जीने वाले गाड़िया लोहार ने प्रतापगढ़ शहर में ही नहीं, जिले में कई गांव-कस्बों भी अपना डेरा जमा रखा है. यहां सड़क के किनारे इनकी अस्थायी बस्ती बसी हुई है. मिट्टी के पांच-छह फीट ऊंचे कच्चे मकान, दो-चार मवेशी, एक बैल गाड़ी और कुछ लोहा-लक्कड़ यही इनकी संपत्ति है. सर्दी हो या गर्मी या फिर बारिश, यहीं पर इनका डेरा रहता है. शादी-ब्याह हो या कोई पर्व-त्यौहार सब कुछ यहीं सम्पन्न होता है.
लोहे के औजार बनाकर जो कुछ मिलता है, उससे अपना और परिवार का पेट पालते हैं. इनके परिवार की महिलाएं पुरुष से अधिक मेहनती होती हैं. भयंकर गर्मी के दिनों में भी लोहा कूटने का कठोर श्रम करती हैं. और जब जी चाहा ये अपनी बैलगाड़ी लेकर दूसरे ठिकाने पर चल देते हैं. ये लोग कृषि उपकरणों के साथ रसोई में काम आने वाले छोटे-मोटे औजार भी बनाते हैं. परिवार का गुजर बसर करने के लिए ये लोग कड़ी मेहनत करते हैं. पुरुषों के साथ साथ महिलाएं भी अपना पसीना बहाने में पीछे नहीं रहती है. लोहे को कूट-कूट कर उनको औजार का रूप देना और बाजार में बेचना, यही इनकी आजीविका का साधन है.  
देश आजाद हुए आज 70 साल से ज्यादा बीत गए हैं. सरकार ने इन लोगों के लिए कई योजनाएं बनाई, लेकिन उन योजनाओं का कितना लाभ इन लोगों तक पहुंचा, इनकी हालत को देख कर साफ पता चलता है. स्वयं सेवी संस्थाओं को आगे आकर इनकी सोच में परिवर्तन लाना चाहिए, समाज की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए इन्हें समझाने की जरूरत है कि ठहराव से ही विकास संभव है. सरकार को इनके आवास और अन्य मूलभूत सुविधाओं के लिए भरसक प्रयास करने की जरूरत है.
कोटि कोटि नमनः हैं ऐसी #वीर_जाति को,उनके द्वारा किये समर्पण को जिस पर वो लोग आज भी कायम हैं 
धन्य है स्वामिभक्त #गाड़िया_लौहार...🙏🏼🙏🏼🙏🏼
#जय_माँ_भवानी
#जय_मेवाड़

शुक्रवार, 15 मई 2020

बीहड़ के बागी मानसिंह

#बीहड़_के_बागी_मानसिंह●●●

जब-जब चंबल के बीहड़ों की बात होती है, तो लोग डर से कांपने लगते हैं.
आज तक भी चंबल में जाने से पहले हर इंसान कई बार सोचता है कि कहीं वहां कोई डाकू न मिल जाए… या कुछ हादसा न हो जाए!
आखिर चंबल की कहानी ही कुछ ऐसी है. इस धरती पर जितने ज्यादा डाकू पैदा हुए हैं, शायद ही कहीं और हुए हों.
बीहड़ों और जंगलों के बीच बसा ये इलाका खतरनाक डाकुओं को पनाह देता था.
बस फर्क इतना था कि वह अपने लूट के लिए कुख्यात होने की बजाए, गरीबों की मदद के लिए  विख्यात रहा. अपने कामों के लिए वह चंबल और उसके आसपास के कुछ इलाकों में भगवान की तरह पूजा जाता रहा.
यहां तक कि लोगों ने उसके नाम का एक मंदिर तक बनवाया.
जानकर हैरानी होती है और विश्वास करना मुश्किल कि आखिर एक डाकू को लोग भगवान की तरह कैसे पूज सकते हैं? पर चूंकि यह सच है, इसलिए इसके पीछे की असल कहानी को जानना दिलचस्प हो जाता है–
बीहड़ों पर करते थे जो राज… नाम था ‘#मानसिंह’...
मान सिंह का जन्म आगरा के गांव खेरा राठौर के एक राजूपत परिवार में हुआ. उनका परिवार चंबल में रहता था. वही चंबल जहां दूर-दूर तक घने जंगल और बीहड़ दिखाई देते हैं. कहते हैं कि मान सिंह के घर की हालत बहुत ज्यादा अच्छी नहीं थी, लेकिन हालत इतनी भी खराब नहीं थी कि वह डकैत बन जाएँ!
किन्तु परिस्थितयों ने उन्हें इस ओर धकेल दिया. उन्होंने हथियार क्यों उठाए इसका जवाब खोजने की कोशिश की जाती है तो एक कहानियां पढ़ने को मिलती है. इस कहानी की मानें तो मान सिंह की पुस्तैनी जमीन पर आसपास के कुछ साहूकारों ने अवैध कब्जा कर लिया था.
मान सिंह ने इसका खूब विरोध किया, लेकिन वह सीधे तरीके से कामयाब नहीं हो पाए. ऊपर से उन्हें इसके चलते परेशानियों का सामना करना पड़ा. अंत में जब उनसे नहीं सहा गया तो उन्होंने अपनी जमीन वापस लेने के लिए हथियार उठा लिए और बागी हो गए.
वैसे भी चम्बल को बागियों की पनाहगाह कहा जाता रहा है

अपनी ही तरह गरीबों पर हो रहे अत्याचारों के लिए खिलाफ जब मान सिंह ने आवाज उठाई तो उनके साथ कई और लोग हो लिए. इनमें उसके कुछ सगे-संबंधी और कुछ साथी शामिल हो गए. इनमें उनके बेटे, भाई नबाब सिंह और भतीजे प्रमुख थे. देखते ही देखते वह लोग अच्छी संख्या में हो गए. करीब 17 लोगों के एक समूह के साथ मान सिंह ने अपनी एक गैंग बना ली और जुल्म करने वालों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया.

कहते हैं कि वह गरीबों को सताने वालों के लिए काल बन चुके थे मानसिंह!

वह अपने समय में कितने खतरनाक रहे होंगे… इस बात को इसी से समझा जा सकता है कि उन्होंने 1939 से लेकर 1955 तक के अपने कालखंड में कभी अपनी बंदूक को शांत नहीं रहने दिया. उन पर लूट के 1,112 और हत्या के 185 मामले दर्ज थे!
नामी डकैत बनने के बावजूद गरीबों के लिए रहे ‘रहमदिल’
मान सिंह के इस गैंग की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वह गरीबों के लिए मसीहा जैसे थे. उसने अपनी लूट के दौरान गरीब लोगों पर कभी जुल्म नहीं किया. बल्कि, उनकी हमेशा मदद की. फिर चाहे गरीबों की बेटियों की शादी करना हो, या फिर किसी की बीमारी का इलाज करवाना. मान सिंह ऐसे कामों में बढ़-चढ़ कर सक्रिय रहे.
महिलाओं के लिए उनके मन में कितना सम्मान था, इस बात को इसी से समझा जा सकता है कि एक बार उनके किसी साथी पर महिला के साथ दुष्कर्म का आरोप लगा, तो उन्होंने देर न करते हुए उसे अपनी गैंग से बाहर का रास्ता दिखा दिया था.
यही कारण रहा कि गरीबों के दिल में उनकी छवि अच्छी बनती चली गई. उसके क्षेत्र में कोई भी उसे डकैत नहीं कहता था. उनकी नेकी का सिलसिला यूंही चलता रहा और गरीबों के लिए एक मसीहा बनकर उभरे.
बहरहाल, इसमें दो राय नहीं कि उन्होंने भारतीय कानून की हमेशा धज्जियां उड़ाई, जिसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी. 1955 ईं में मध्य प्रदेश के भिंड में पुलिस ने उसे अपने एनकाउंटर में मार गिराया और इस तरह मान सिंह की कहानी खत्म हो गई.
मान सिंह को मरने से पहले संघ से जुड़े एसएन सुब्बाराव ने एक कार्यक्रम के दौरान भाषण देते हुए सुना था. उनकी बात माने तो वह मान सिंह के भाषण से हैरान थे. उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि वह किसी डाकू को सुन रहे हैं. उन्होंने बताया था कि मान सिंह बिल्कुल किसी नायक की तरह लोगों को संबोधित कर रहा था.
#मरने_के_बाद_आज_भी_लोगो_के_दिलो_में_जिंदा_हैं_बागी_मानसिंह●●●
भले ही मान सिंह को पुलिस ने मार गिराया था, लेकिन वह गरीबों के दिल में हमेशा जिंदा रहे. वह उनके लिए क्या मायने रखता था, इस बात को इसी से समझा जा सकता है कि उनकी याद में उनके गांव खेड़ा राठौर में उनके लिए एक मंदिर तक बनाया गया.
सुनकर थोड़ा अजीब लगता है, लेकिन इस मंदिर में नियमित रूप से लोग उनकी पूजा करते हैं. उनके नाम पर एक चालीसा भी रचा गया है, जिसे मंदिर में गाया जाता है.
यही नहीं उनके जीवन पर आधारित कई कहानियों और नुक्कड़ नाटक भी वहां के स्थानीय लोगों ने बनाए हैं, जिनका समय-समय पर मंचन होता रहता है.