गुरुवार, 28 मई 2020

#अमर_बलिदानी_वीर_बन्दासिंह_बहादुर

#अमर_बलिदानी_वीर_बन्दासिंह_बहादुर

आज सिंह गर्जना के माध्यम से हम अपने पाठकों का परिचय एक ऐसे वीर क्षत्रिय से करायेंगे जिसकी वीरता, त्याग  बलिदान, संघर्ष, शौर्य महाराणा प्रताप या किसी भी अन्य महान क्षत्रिय योद्धा से किंचित भी कम ना था लेकिन उसे भारत के इतिहास में बल्कि यहाँ तक क्षत्रिय इतिहास में भी वो सम्मान नहीं मिला जिसका वो हक़दार था।  
बन्दा सिंह बहादुर या बन्दा बैरागी पहले ऐसे सिख सेनापति हुए, जिन्होंने मुगलों के अजेय होने के भ्रम को तोड़ा; छोटे साहबजादों की शहादत का बदला लिया और गुरु गोबिन्द सिंह द्वारा संकल्पित प्रभुसत्ता सम्पन्न लोक राज्य की राजधानी लोहगढ़ की नीव रक्खी। यही नहीं, उन्होंने गुरु गोबिन्द सिंह के नाम से सिक्का और मोहर जारी करके, निम्न वर्ग के लोगों की उच्च पद दिलाया और हल वाहक किसान-मजदूरों को जमीन का मालिक बनाया।
बंदा बैरागी से वीर बंदा सिंह बहादुर बनने की रोचक कथा
यह सत्य है कि वीर भावुक व दयावान होता है। रणभूमि में अपनी जान को हथेली पर रखकर दुश्मन को मौत के घाट उतारने वाला वीर, किसी का दुख देख उद्वेलित हुए बिना नहीं रह सकता। श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज अपनी दक्षिण यात्रा के समय यह अच्छी तरह समझ रहे थे कि हिरणी के शिकार के बाद उसके पेट से निकले बच्चों को देखकर वैराग्य धरण करने वाले क्षत्रिय, सुदूर जम्मू से गोदावरी के तट पर आकर बसने वाले माधेदास बैरागी के अन्दर एक महान वीर पुरुष छिपा है। आवश्यकता है, उसे सही दिशा देने की। इसीलिए स्वांग रचाना भी आवश्यक था।
दया परवान'' का उपदेश देने वाले गुरु साहब के दशवें स्वरूप गुरु गोबिन्द सिंह आज बकरी के मासूम बच्चों का झटका' करने व उनके खून को एक सन्यासी के डेरे में जगह-२ छिड़कने का हुक्म पफरमा रहे थे। हिरणी के मासूम बच्चों को बिलखता देख सारी दुनिया, सुख, राज भोग छोड़ने वाले व्यक्ति का मासूम मेमनों का ऐसा अन्त देख आवेग में आना स्वाभाविक ही था।
बैरागी का क्रोध् उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा था और गुरु जी शान्त-ध्ीर-गम्भीर पलंग पर बिराजे सब देख रहे थे- गुरुजी बोले, माधेदास क्रोध् छोड़ो, बोलो क्या हो गया है।'' माधेदास कड़कर बोलता है कि मासूमों के खून बहने से मेरा डेरा अपवित्रा हो गया है गुरुजी बोले, संन्यासी, तुझे अपने इस छोटे से डेरे के अपवित्रा होने की चिन्ता है, पर वो जो भारतवर्ष का बड़ा डेरा है, उसमें हजारों बेकसूरों का खून बहने का तुझे कोई दुख नहीं है।''
क्रोध् थम गया। आवाज रुंध् गयी। जैसे एकदम लम्बी तन्द्रा से जागा हो। बस इतना ही बोला पाया महाराज...! गुरुजी बोले, इस भारतवर्ष के बडे डेरे में मुगलों द्वारा हजारों बहिनों का सुहाग लूटा जा रहा है, सरेआम उनकी इज्जत लुट रही है, छोटे-छोटे बच्चों को दीवार में चुना जा रहा है।
अब माधेदास बैरागी अमृतपान कर हाथ में खण्डा लिये ÷बंदासिंह बहादुर' हो गया था, जो राष्ट्र के पुनरुत्थान के लिए हुंकार भर पंजाब की ओर कूच करने को तैयार था। उसके पास थे गुरुजी के दिये पांच तीर, पांच सिख-बाबा बिनोद सिंह, बाबा राहनसिंह, बाबा बाजसिंह, बाबा दयासिंह व भाई रणसिंह। साथ में नगाड़ा, निशानसिंह, बीरसिंह द्वारा गुरुजी के संगतों के लिए हुक्मनामा, गुरुजी का दिया ढेर सारा आशीर्वाद व रगों में पफड़क रहा गर्म खून।

बंदा सिंह बहादुर का अमर बलिदान
मुगलों ने गुरदास नांगल के किलें को चारों ओर से घेर लिया। किले में खालसा फौजे थी। जिनकी संख्या काफी कम थी। सिख बड़ी बहादुरी से लड़े। लेकिन संख्या का बल उनके पक्ष में नहीं था। रसद और असले की कमी के चलते बाबा बंदा सिंह बहादुर और ७०० सिख सिपाही गिरफ्रतार कर लिए गए। बाबा बंदा सिंह बहादुर को लालकिले में गिरफ्रतार करके रखा गया।  अत्याचार किए गए। बाबा बंदा सिंह बहादुर की पत्नी को मौत के घाट उतार दिया गया। उसके बच्चों को आंखों के सामने काट डाला गया और उनके शरीर के छोटे-२ टुकड़ों को बाबा बंदा सिंह बहादुर के मुंह में ठुंसा गया। सिख सिपाहियों को सरेआम मौत की सजा दी गई। बाबा बंदा सिंह बहादुर को एक लोहे के पिंजरे में बंद करके, हाथी पर बैठाकर पूरे दिल्ली शहर में घुमाया गया। अंत में इस्लाम न कबूल करने के कारण काजी ने उन्हें मृत्यु दण्ड दिया।
इस प्रकार बंदा सिंह बहादुर का जीवन क्रांतिकारी विचार ग्रहण करने का जीवन है।

जीवन परिचय
बाबा बन्दा सिंह बहादुर का जन्म कश्मीर स्थित पुंछ जिले के राजौरी क्षेत्र में 1670 ई. तदनुसार विक्रम संवत् 1727, कार्तिक शुक्ल 13 को हुआ था। वह राजपूतों के भारद्वाज गोत्र से सम्बद्ध था और उसका वास्तविक नाम लक्ष्मणदेव था। 15 वर्ष की उम्र में वह जानकीप्रसाद नाम के एक बैरागी का शिष्य हो गया और उसका नाम माधोदास पड़ा। तदन्तर उसने एक अन्य बाबा रामदास बैरागी का शिष्यत्व ग्रहण किया और कुछ समय तक पंचवटी (नासिक) में रहा। वहाँ एक औघड़नाथ से योग की शिक्षा प्राप्त कर वह पूर्व की ओर दक्षिण के नान्देड क्षेत्र को चला गया जहाँ गोदावरी के तट पर उसने एक आश्रम की स्थापना की।
3 सितंबर 1708 ई. को नान्देड में सिक्खों के दसवें गुरु गुरु गोबिन्द सिंह ने इस आश्रम को देखा और उसे सिक्ख बनाकर उसका नाम बन्दासिंह रख दिया। पंजाब में सिक्खों की दारुण यातना तथा गुरु गोबिन्द सिंह के सात और नौ वर्ष के शिशुओं की नृशंस हत्या ने उसे अत्यन्त विचलित कर दिया। गुरु गोबिन्द सिंह के आदेश से ही वह पंजाब आया और सिक्खों के सहयोग से मुगल अधिकारियों को पराजित करने में सफल हुआ। मई, 1710 में उसने सरहिंद को जीत लिया और सतलुज नदी के दक्षिण में सिक्ख राज्य की स्थापना की। उसने खालसा के नाम से शासन भी किया और गुरुओं के नाम के सिक्के चलवाये।
बन्दा सिंह ने अपने राज्य के एक बड़े भाग पर फिर से अधिकार कर लिया और इसे उत्तर-पूर्व तथा पहाड़ी क्षेत्रों की ओर लाहौर और अमृतसर की सीमा तक विस्तृत किया। 1715 ई. के प्रारम्भ में बादशाह फर्रुखसियर की शाही फौज ने अब्दुल समद खाँ के नेतृत्व में उसे गुरुदासपुर जिले के धारीवाल क्षेत्र के निकट गुरुदास नंगल गाँव में कई मास तक घेरे रखा। खाद्य सामग्री के अभाव के कारण उसने 7 दिसम्बर को आत्मसमर्पण कर दिया। फरवरी 1716 को 794 सिक्खों के साथ वह दिल्ली लाया गया जहाँ 5 मार्च से 13 मार्च तक प्रति दिन 100 की संख्या में सिक्खों को फाँसी दी गयी। 9 जून को बादशाह फर्रुखसियर के आदेश से बन्दा सिंह तथा उसके मुख्य सैन्य-अधिकारियों के शरीर काटकर टुकड़े-टुकड़े कर दिये गये।
मरने से पूर्व बन्दा बैरागी ने अति प्राचीन ज़मींदारी प्रथा का अन्त कर दिया था तथा कृषकों को बड़े-बड़े जागीरदारों और जमींदारों की दासता से मुक्त कर दिया था। वह साम्प्रदायिकता की संकीर्ण भावनाओं से परे था। मुसलमानों को राज्य में पूर्ण धार्मिक स्वातन्त्र्य दिया गया था। पाँच हजार मुसलमान भी उसकी सेना में थे। बन्दासिंह ने पूरे राज्य में यह घोषणा कर दी थी कि वह किसी प्रकार भी मुसलमानों को क्षति नहीं पहुँचायेगा और वे सिक्ख सेना में अपनी नमाज़ और खुतवा पढ़ने में पूरी तरह स्वतन्त्र होंगे।

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